Thursday, April 7, 2022

तृणमूल लोकतंत्रः विकेन्द्रीकृत एवं प्रतिनिधात्मक शासन का आधार


 

संक्षेपिका  भारतीय लोकतंत्र का भविष्य तृणमूल स्तर पर लोकप्रिय जन सहभागिता सुनिश्चित करने पर निर्भर है कि स्वतंत्र निष्पक्ष राष्ट्रीय चुनाव कराने पर। वैश्वीकरण संचार क्रांति ने राज्य नागरिक के संबंध को नये सिरे से परिभाषित किया है। राजनीति लोकतंत्र की विशेषता है। भारतीय राजनीति का विकास की पश्चिमी अवधारणा पर आधारित होने के कारण स्थानीयता का महत्व हासिये पर ही रहा। भारतीय लोकतंत्र अपने स्थापना के साथ ही सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार एवं कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत को अपनाया। वास्तविक विकेन्द्रीकरण राज्य को विकास की ओर अग्रसर करती है। भ्रष्टाचार हिंसा को खत्म किये बिना जनता की शासन में सहभागिता का कोई मतलब नहीं। 1973 में संविधान संशोधन में स्वशासी संस्था को ज्यादा शक्ति प्रदान की है। पारदर्शिता लोकतंत्र के लिये अनिवार्य है।

 

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महत्वपूर्ण शब्द  लोकतंत्र] विकेन्द्रीकरण] सहभागिता] तृणमूल]स्वशासन]प्रतिनिधात्मक।
    
भारतीय राजनीति एवं लोकतंत्र पर प्रचलित लेखन के अन्तर्गत स्थानीय लोकतंत्र ने अनुचित उपेक्षा सहन किया है। भारतीय लोकतंत्र का भविष्य शक्ति तृणमूल स्तर पर, वास्तविक लोकप्रिय जन सहभागिता सुनिश्चित करने पर निर्भर है कि स्वतंत्र निष्पक्ष राष्ट्रीय चुनाव करवाने पर। हालांकि स्थानीय शासन की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितनी की मानव इतिहास लेकिन हाल के वर्षों में यह शैक्षणिक एवं व्यावहारिक साहित्य के विस्तृत चर्चा में शामिल हुई है। वैश्वीकरण संचार क्रांति ने बाध्य किया है कि नागरिक राज्य संबंध एवं सरकार की विभिन्न स्तरों की भूमिका एवं अन्तर्संबंध की पुनरीक्षा की जाये जिस कारण आज स्थानीय शासन के क्षेत्र में निश्चय ही विस्तार हुआ है।
    
शासन के प्रकार के रूप में लोकतंत्र जनता के सशक्तीकरण को चिन्हित करता है जबकि तृणमूल लोकतंत्र वास्तविक सहभागी विकासात्मक प्रकिया को स्थानीय स्तर पर सुनिश्चित करते हुए स्थानीय जनता को सशक्त बनाता है।

दूसरे शब्दों में, तृणमूल लोकतंत्र सही मायनों में विकेन्द्रीकृत लोकतंत्र है, जिसमें जन मामलों के प्रबंधन की शुरूआत अंत शीर्ष से नहीं होता बल्कि स्थानीय क्षेत्र में जनता के सहभागिता के बड़े तंत्र के द्वारा होता है, जो शक्ति, लोकतांत्रिक विचार कार्य का वास्तविक केन्द्र है।
राजनीति लोकतंत्र की विशेषता है। लोकतंत्र में राजनीति जनता के लगाव को बनाये रखती है। सुशीला कौशिक के अनुसार राजनीत वास्तव में शक्ति का अभ्यास है एवं राजनीतिक सहभागिता को इस प्रक्रिया में अर्थपूर्ण मार्गदर्शन करना चाहिए साथ ही राज्य को उन तंत्रों पर प्रभावी नियंत्रण रखना चाहिए जो इन्हें लागू करते हैं। स्टिगलर कहता है कि प्रतिनिधात्मक शासन जनता के जितना ही करीब होगा वह उतना ही अच्छा कार्य करेगा।
ऐतिहासिक रूप से स्थानीय लोकतंत्र राष्ट्रीय राज्य के उदय से पहले अस्तित्व में आया।

भारत में स्थानीय लोकतंत्र का लम्बा इतिहास है, जो मुगल काल में जारी रहा, लेकिन ब्रिटिश राज में इस परम्परा में रूकावट आई। स्वाधीनता संग्राम के दौरान, गाँधी जी अन्य नेताओं ने माना कि आजाद भारत के लिये गाँवों का सशक्तिकरण आवश्यक है।   
नेहरू की केन्द्रीकृत शासन व्यवस्था स्थानीय लोकतंत्र में निहित जनतांत्रिक मूल्यों को देखने में असफल रही। अम्बेडकर का शहरी व्यक्तित्व ग्रामीण परिस्थितियों से प्रभावित हो पाया। दूसरे शब्दों में, भारतीय तृणमूल लोकतांत्रिक संस्थाओं में, जो व्यापक लोकतांत्रिक मूल्य अन्तर्निहित थे, उसे नजर अंदाज किया गया। भारतीय राजनीति का पश्चिमी राजनीतिक विकास के अनुभव पर आधारित होना लोकतांत्रिक स्थानीय सरकार की भूमिका नकारने वर उस पर संदेह करने का मूल कारण है।

 पिछले कई वर्षों से पश्चिमी विकास का यह अनवरत अंधानुकरण एवं स्थानीयता को दबाने की इस प्रक्रिया ने राष्ट्रीय लोकतंत्र, राष्ट्रीय राज्य एवं राष्ट्रीय पहचान के सिद्धांत को उभारने मजबूती प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
भारत ने अपने संविधान में ‘‘एक संप्रभु, समाजवादी, धर्म निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र’’ का चुनाव किया है। लोकतांत्रिक मूल्यों का अर्थ न्याय, समानता, बहुलवाद, विषमता एवं समुदाय एवं वातावरण के बीच समानता है। संपूर्ण संरचना कानून के शासन पर आधारित है। निरंकुश व्यवस्था के मुकाबले लोकतंत्रीय व्यवस्था में व्यावहारिक रूप से मानवाधिकार एवं मौलिक स्वतंत्रताऐं ज्यादा पल्लिवत-पुष्पित होती हैं। आज जबकि विकास, आर्थिक बढोत्तरी, आय, समानता एवं मानव संसाधन, विकास का पर्यायवाची बन चुका है, ऐसे में, विकास के लिए अच्छे शासन शांति की आवश्यकता है। मार्टिन मिनोग के अनुसार अच्छा शासन विस्तृत सुधार योजना के साथ-साथ नागरिक सामाजिक संस्था को मजबूत करने का एक विशेष प्रकार की पहल है। शासन को ज्यादा उत्तरदायी, खुला, पारदर्शी एवं अधिक लोकतंत्रिक बनाना इसका मुख्य उद्देश्य होता है। सबसे महत्वपूर्ण अमर्त्य सेन के विचार हैं कि आर्थिक विकास के साथ-साथ नागरिक एवं राजनीतिक विकास भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन्हीं अधिकारों के बदौलत एक राष्ट्र अपने आर्थिक आवश्यकताओं को पाने की तरफ अग्रसर हो सकता है।
स्थानीय स्वशासन मेंजनता के स्वामित्वकी भावना की कमी एक सार्वभौमिक तथ्य है लेकिन भारत में स्थानीय स्वशासन की स्थिति विचित्र है। हालांकि भारत में स्थानीय स्वशासन की परंपरा काफी पुरानी है लेकिन स्वतंत्रता के पूर्व स्थानीय स्वशासनजनता के स्वामित्वके सिद्धान्त पर आधारित नहीं था लेकिन आजाद भारत में यह सिद्धान्त आधारभूत बन गया। पश्चिम में जब स्थानीय लोकतंत्र का विकास हुआ तो शुरूआत में इसका क्षेत्र काफी संकुचित था धीरे-धीरे संपूर्ण जनता को इसमें शामिल किया गया जबकि भारतीय लोकतंत्र में स्थापना के साथ ही तुरन्त सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार एवं कानून के समक्ष समानता के सिद्धान्त को अपनाया गया। पश्चिम में स्थानीय स्वशासन में विभिन्न तकनीकी एवं जनकल्याण सेवाओं को समयबद्ध तरीके से अपनाया गया जबकि भारत में फौरन अपनाया गया।
हाल के वर्षों में यह खुले दिमाग से स्वीकार किया जा रहा है, कि वास्तविक विकेन्द्रीकरण राज्य को विकास की ओर अग्रसर करती है। यह भी अनुभव किया गया है कि शासन एवं प्रबंध की स्थानीय इकाई का विकेन्द्रीकरण, जनशक्तिकरण, जनसहभागिता एवं कुशलता को बढ़ाने का सर्वोत्तम उपाय है।
पॉल एच. एप्पलबी के अनुसार आज लोकतांत्रिक राष्ट्रों की जनता में यह सामान्य धारणा बन चुकी है कि केन्द्रीकरण बुरा है एवं विकेन्द्रीकरण अच्छा है। मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार जहाँ विकेन्द्रीकरण हुआ है, यह स्थानीय सहभागिता को बढ़ाने स्थानीय अधिकारियों के उत्तरदायित्व को बढ़ाने, कीमत घटाने एवं प्रशासनिक कुशलता बढ़ाने, में अत्यधिक सफल रही है। विकेन्द्रीकरण संसाधनों को जुटाने में मदद करती है, स्थानीय एवं क्षेत्रीय समस्याओं के हल प्रस्तुत करती है एवं गरीबों को विकास की मुख्य धारा में लाकर समता मूलक विकास को बढ़ावा देती है।
विकेन्द्रीकरण वास्तव में निर्णय निर्माण में शक्ति की साझेदारी एवं लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रतिबिम्बित करता है। विकेन्द्रीकरण इस सिद्धान्त पर आधारित होता है कि ज्यादातर निर्णय उन्हीं व्यक्तियों के द्वारा लिये जाते हैं जो इससे प्रभावित होते हैं। शक्ति के विकेन्द्रीकरण का उद्देश्य अच्छा एवं तीव्र संचार, विकास में जनता की सहभागिता एवं प्रतिबद्धता, सहयोग के लिए जागरण एवं राष्ट्रीय विकास के लिए बेहतर तरीके से संसाधनों का उपयोग एवं निर्णय-निर्माण में देर में कमी, संसाधनों के वितरण एवं निवेश में समानता एवं हितग्राहियों के प्रति प्रशासन की उदासीनता में कमी लाता है। विकेन्द्रीकरण प्रमुख प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोकतंत्र सही मायनों में प्रतिनिधात्मक एवं उत्तरदायी बनता है।
लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण राजनीतिक एवं विकासात्मक प्रक्रिया में जनसहभागिता को तय करने के साथ-साथ परराष्ट्रीय एवं मानवीय समस्याओं को सुलझाने का साधन है। भारत में विकेन्द्रीकरण, भारतीय संघ की संरचनात्मक विशेषता है। इसका क्रियान्वयन राज्य की वैधता एवं शासन को मजबूती प्रदान करने में सहायता करती है। रजनी कोठारी के अनुसार भारतीय शासन व्यवस्था में विकेन्द्रीकरण के महत्व को दो तरह से समझा जा सकता है। पहला, संघीय शक्ति के वितरण में, दूसरा भारतीय राजनीति के संघीय चरित्र को मजबूती प्रदान करने में। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण ने परराष्ट्रीय एवं जातीय संघर्षों को महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली ढंग से सुलझाया है। आज भारत का स्वरूप कुछ और होता अगर संघीय विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के अन्तर्गत शक्ति के वितरण के फलस्वरूप राजनीति में जनता की स्थानीय सहभागिता होती। रजनी कोठारी का मानना है कि तृणमूल राजनीति प्रक्रिया विकेन्द्रीकरण का निर्धारक तत्व है। उनके अनुसार, विकेन्द्रीकरण की सफलता की दो शर्तें हैं। एक प्रभावी जनसहभागिता एवं दूसरा नागरिक समाज का दृढ़ संकल्प।
आजादी के बाद राज्य व्यवस्था एक आधुनिक बहु-जातीय राज्य के रूप में विकसित हो रहा था, इस प्रकार के राज्य में लोकतंत्र का व्यवहारिक प्रयोग, सामाजिक जीवन, स्थानीय शासन, व्यापारिक संघ, धार्मिक सभाओं आदि में अत्यधिक होता है एवं सारा सामाजिक तानाबाना समूह पर आधारित होता है। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 40 के अन्तर्गत राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त का समावेश पंचायत को स्थानीय स्वशासन के रूप में स्थापित करने के लिए किया गया जिसके अनुसार, ‘‘राज्य ग्राम पंचायत के गठन के लिए आवश्यक कदम उठायेगा एवं उसे अधिक शक्ति सत्ता के लिए आवश्यक कदम उठायेगा एवं इसे इतनी शक्ति सत्ता प्रदान करेगा जितनी स्वशासन की इकाई को अपने कार्यों को पूरा करने में आवश्यक होती हैं।’’ संविधान में स्थानीय शासन को राज्य सूची के अन्तर्गत रखा गया है ताकि विभिन्न राज्य अपनी स्थानीय आवश्यकतानुसार इस व्यवस्था को लागू कर सके। इन स्थानीय संस्थाओं के माध्यम से वास्तविक शक्ति का विकेन्द्रीकरण, केन्द्र द्वारा शक्ति के दुरूपयोग के भय को कम करेगा, जनसहभागिता बढ़ायेगा, लोकतांत्रिक राजनीतिक क्षेत्र का विस्तार करेगा, प्रशासनिक कुशलता में वृद्धि करेगा एवं अर्न्तशासनात्मक संबंधों में सुधार लायेगा एवं उसे दृढ़ता प्रदान करेगा। भारत में 1950 से पंचायत के रूप में स्थानीय ग्रामीण लोकतंत्र हाल तक शिथिल था। सभी प्रबुद्ध जनों की यह आम राय है कि कुछ राज्यों को छोड़कर ग्रामीण लोकतांत्रिक संस्थाऐं राज्य सरकारों में प्रभावित या यूं कहे प्रचलित थी।
आज के किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में चुनाव की केन्द्रीय भूमिका होती है। लोकतंत्र के प्रतिनिधात्मक चरित्र को दर्शाने के लिए चुनाव की प्रकृति, अवधि एवं सहभागिता की दर का निश्चित आधार होता है। चुनाव लोकतंत्र में एक मंच होता है एक प्रक्रिया होती है, जो राष्ट्र का ध्यान शोषित एवं कमजोर वर्ग के समस्याओं की ओर आकृष्ट करने में सहायता करता है कि निर्णय निर्माण में प्रत्यक्ष सहभागिता नागरिकों के लिए आदर्श होगी। क्योंकि वे अपने ऊपर शासन करेंगे। आज के आधुनिक राज्य में जिसका क्षेत्रफल एवं जनसंख्या विस्तृत होती है, जिसकी समस्याएँ जटिल होती है, सिर्फ प्रतिनिधात्मक लोकतंत्र ही बेहतर शासन व्यवस्था हो सकती है।
अब यह स्पष्ट हो चुका है कि किसी भी देश में दीर्घकालीन आर्थिक सामाजिक विकास हो सके इसके लिए आवश्यक है कि वहाँ की जनता राजनीतिक प्रक्रिया में भाग ले। सहभागिता की प्रक्रिया जटिल है- यह मान लेना संभव नहीं कि जन संख्या का हर तबका सही तरीके से भाग लेगा। भारतीय राज्य के पास इस बात को मानने के बहुत सारे कारण थे कि विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वयन जैसे समग्र ग्राम विकास कार्यक्रम तभी प्रभावी होगा जब स्थानीय जनता इसमें सम्मिलित हो, विशेषकर विभिन्न स्थानीय परियोजनाओं पर निश्चित राशि किस प्रकार वरीयता के आधार पर खर्च किया जाये।  
जनशक्तिकरण, आज भारतीय राजनीति का प्रमुख मुद्दा है। पंचायती राज वह संस्था है जिसके माध्यम से जनशक्तिकरण हो सकता है। स्वतंत्रता के 75 वर्षो के बाद भी भारतीय जनता का राजनीतिक सामाजीकरण स्थानीय लोकतंत्र की ओर उन्मुख नहीं हो पाया है। यह भी सही है कि पिछले 75 वर्षो से बिना किसी उत्तरदायित्व के जनता सरकार से लाभ प्राप्त कर रही है। इतने वर्षो में तृणमूल राजनीति से जनता के दुराव ने सरकार एवं जनता के बीच एक दूरी एक संवाद हीनता का निर्माण कर दिया है। सरकार की मजबूती जनता के अनभिज्ञता पर निर्भर करती है। टालस्टाय का अभिमत है कि सरकार सदैव जन जागरण का विरोध करती है। परिणामस्वरूप अधिकारी भ्रष्ट हो चुके है एवं यह भ्रष्ट व्यवस्था राजनीतिज्ञों द्वारा मान्यता प्राप्त करने के बाद वैधता प्राप्त कर चुकी है।
एक भोजपुरी कहावत यहाँ चरितार्थ होती है किः
                ‘‘
हमहूं लूटीं तूंहों लूटअ
लूटे के आजादी बा
तूं हमरा से ज्यादा लूटअ
कि तहरा देह पर खादी बा’’
चिंता का विषय यह है कि भ्रष्टाचार आज सत्ता के निचले स्तर तक पहुंच चुका है। भ्रष्टाचार एवं हिंसा को खत्म किए बिना जनता की शासन में सहभागिता का कोई मतलब नहीं है। कुछ लोगों का मानना है कि भ्रष्ट निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने की व्यवस्था कारगर कदम हो सकता है।
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वें संविधान संशोधन ने स्वशासी संस्थाओं को ज्यादा शक्ति प्रदान की है। पंचायती अधिनियम का विश्लेषण करने के बजाय यह आवश्यक है कि इस नये पंचायती व्यवस्था के बारे में जनता को जागरूक बनाये। जनता की जागरूकता पंचायती व्यवस्था को प्रकाशवान बनायेगी। ग्रामीण राजनीति का शुद्धीकरण राष्ट्रीय राजनीति के शुद्धिकरण में मदद करेगा। वर्तमान समय में एक अन्य आयाम, पारदर्शिता के सिद्धान्त में राज्य जनता के बीच तालमेल बिठाने की महत्वपूर्ण क्षमता है। पारदर्शिता लोकतंत्र के लिये अनिवार्यहै।
विकास के अध्येताओं ने यह मान लिया है कि सिर्फ आधुनिकीकरण एवं औद्यौगिंकीकरण विकास ही ला सकती है। लेकिन विकास की इस प्रक्रिया में व्यक्ति की भूमिका एवं उत्तरदायित्व को महत्वपूर्ण तथ्य के रूप में स्थापित करना होगा। जनता का उन्मुखीकरण करना होगा। राजनीतिक नेतृत्व को नई दिशा में प्रशिक्षण देना होगा। पंचायती नेतृत्व को योजना की कला, क्रियान्वयन, देखभाल एवं परियोजना के मूल्यांकन में पारंगत करना होगा। यह सुनिश्चित करना हमारा कर्तव्य है कि पंचायती राज के निर्वाचित सदस्यों को जनता के कल्याण के लिये निर्धारित शक्ति एवं कार्यो का प्रयोग करना है।
ग्रामीण समाज में प्रभावी शक्ति के विकेन्द्रीकरण के लिये कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान देना होगा। सहकारी संस्थाओं का परीक्षण लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के संबंध में होना बाकी है। अशासकीय संगठनों एवं स्वसहायता समूहों की ग्रामीण प्रतिनिधियों के साथ शक्ति की भागीदारी को नये सिरे से परिभाषित करना होगा।
अंत में, स्थानीय लोकतंत्र के बेहतर कार्य के लिये संस्थागत परिवर्तन एक स्वागत योग्य कदम है। लेकिन लम्बे समय तक स्थानीय लोकतंत्र काम करे यह एक अलग कहानी है।मुकेश कुमार  सहायक प्राध्यापक राजनीति शास्त्र शासकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय मुरार ग्वालियर ( प्र

 

Wednesday, April 6, 2022

अमेरिकी और भारतीय सिनेमा एवं साहित्य में नारीवादी विचारधारा

विषय पढ़ने से पूर्व निवेदन
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किसी भी देश की प्रगति का मूल्यांकन उस देश की स्त्रियों की स्थिति से लगाया जा सकता है। देश के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य में नारी को रखकर देखा जाए तो कुछ अपवादों को छोड़कर हम एक ही बिन्दु पर पहुँचेंगे कि पुरुषों ने सदियों तक उसे दोयम दर्जे का प्राणी बनाकर रखा। दास बनाया। साम्राज्यवादी व्यवस्था में स्त्री को जबरन पत्नी बनाकर रखा गया। कहीं उसे तरह-तरह के प्रलोभन देकर भोग और विलासिता की वस्तु बनाकर शोषण किया। जहाँगीर का 48 वर्ष का बेटा तख्ते सल्तनत पर बैठा तो मुसाहिबों से कहने लगा, ‘मैं अपने बाप के सामने तीन बरस तक दुश्मनों से लड़ा हूँ और हर तरफ फौजकशी की है अब मेरा इरादा मुल्कगिरी करने का नहीं है। मैं चाहता हूँ कि बाकी उम्र ऐशो-इशरत में बसर करूँ। मशहूर है कि फिर उसने पंद्रह हजार औरतें अपने महल में जमा कीं और एक शहर औरतों का बसाया जिसमें मर्द न थ। जहाँ कोई हसीन औरत सुनता, किसी न किसी तरह अपने महल में मंगवा लेता’।
इतिहास के पन्नों को पलटने पर भारतीय नारी की स्थिति और दशा एक दयनीय, निर्बल, पुरुषों पर आश्रित दिखाई पड़ती है । एक साधारण सी बात यह है कि जिस समाज में जितना अधिक शोषण व उत्पीड़न होगा उस समाज की परतों में आंदोलन की चिंगारियाँ अंदर ही अंदर सुलगती हैं और एक दिन ज्वालामुखी की तरह फटती हैं। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महादेव गोविन्द रनाडे, महात्मा ज्योतिबाफूले, महात्मा गाँधी जैसे अनेक लोगों ने नारी जगत के उद्धार के लिए और उनके व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए उन जातिगत व धार्मिक बंधनों को समाप्त करने के लिए संघर्ष किया, जिससे वे पुरुष समाज के अत्याचारों और धार्मिक अंधविश्वासों से संघर्ष कर सकें। ये सब लोग कहीं न कहीं नारी सशक्तिकरण को बल प्रदान करने में सहायक बनें।
    पुरुष प्रधान समाज में नारी की स्थिति को बताने का प्रयास हिंदी साहित्य में भी होता रहा। आठवें दशक में महिला लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं में स्त्री विमर्श को उभारने का प्रयास किया। ‘उषा प्रियंवदा’, ‘मन्नू भंडारी’, ‘मृदुला गर्ग’, ‘कृष्णा अग्निहोत्री’, ‘राजी सेठ’, ‘प्रभा खेतान’ ने अपनी रचनाओं से पाठकों का ध्यान खींचा। ‘चित्र मुद्गल’ ने अपने उपन्यास ‘एक जमीन अपनी’ में लिखा है – ‘औरत बोनसाई का पौधा नहीं है - जब जी चाहे उसकी जड़ें काटकर उसे गमले में वापिस रोप दिया। वह बौना बनाये रखने की इस साजिश को अस्वीकार करती है’।
        ‘मैत्रेयी पुष्पा’ लिखती है कि – ‘विभिन्न मानसिकता के इस दुमुंहे समाज में आज की नारी मात्र वस्तु, मात्र संपत्ति, विनिमय की चीज है’। ‘जयशंकर प्रसाद का नाटक ध्रुवस्वामिनी’ हो या फिर ‘हजारीप्रसाद जी का उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा’ या ‘मुझे चाँद चाहिए’ (सुरेन्द्र वर्मा), ‘वसंती’ (भीष्म साहनी), ‘अर्धनारीश्वर’ (विष्णु प्रभाकर), ‘बेतवा बहती रही’ (मैत्रेयी पुष्पा), ‘थकी हुई सुबह’ (राम दरश मिश्र), ‘कीर्ति कथा’ (कश्मीरी लाल) हिंदी साहित्य नारी को गरिमा प्रदान करता है, उसे पवित्र बनाता है एवं पूज्य मानता है।
    ‘सिमोन द बोउआ’ की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ में नारीवाद पर गम्भीर विचार प्रकट किया गया है और विषय को एक नया कोण सोचने के लिए दिया है। वह कहती हैं, ‘नारीवाद’ से मेरा तात्पर्य यह है कि कुछ खास स्त्री मुद्दों पर वर्ग संघर्ष से हटकर स्वतंत्र रूप से संघर्ष करना है। मैं आज भी अपने इसी विचार पर कायम हूँ। मेरी परिभाषा के अनुसार ‘स्त्रियाँ और वे पुरुष भी नारीवादी हैं, जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था में औरतों की स्थिति में परिवर्तन के लिए संघर्षरत हैं। यह सच है कि पूरे समाज की मुक्ति के बर्गर स्त्रियों की पूर्ण मुक्ति संभव नहीं है, लेकिन फिर भी नारीवाद इस लक्ष्य के लिए आज और अभी संघर्षरत हैं। इस अर्थ में मैं नारीवादी हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि औरत की मुक्ति के लिए हमें आज और अभी संघर्ष करना चाहिए, इससे पहले की समाजवाद का हमारा स्वप्न पूरा हो। ‘द सेकण्ड सेक्स’ लिखे जाने के तेईस वर्ष बाद अपने को नारीवादी घोषित करने के मूल कारक के रूप में स्वीकार करती है।‘
अमेरिका में नारीवाद की पहली लहर सिनेका फाल्स सम्मेलन के तहत उठी। यह औरतों के अधिकारों से जुड़ा पहला सम्मेलन था जो कि 19-20 जुलाई 1948 को न्यूयार्क में आयोजित हुआ था। सम्मेलन का विशेष मुद्दा यह था कि 1840 में जब एलिजाबेथ केडी लुक्रिटिया मोट से विश्व दास मुक्ति सम्मेलन में मिली तब उस सम्मेलन में मोट और अन्य अमेरिकी औरतों को बैठने के लिए बस इसलिए मना किया गया था क्योंकि वे सब औरतें थीं। इसके बाद केडी और मोट ने नारी की स्थिति को बताने के लिए एक सम्मेलन बुलाया। 300 से अधिक औरतें और पुरुषों ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया। ‘भावनाओं और संकल्पों की घोषणा’ नामक निष्कर्ष पर लगभग 68 औरतों और 32 पुरुषों ने अपने हस्ताक्षर किया।
    अमेरिका में यह लहर दूसरी बार 1968 में आयी जब बेटी फ्रीडन ने ‘द फेमिनाइन मिस्टीक’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें इन्होंने बताया कि सिनेमा किस तरह नारी के चरित्र को दिखाता है। केवल घरेलू कार्यों में लगकर महिलाएँ अपनी क्षमताओं और हुनर को दबाती जा रही हैं।
तीसरी लहर 1990 में तब आयी जब यूनाइटेड स्टेट के उच्चतम न्यायालय के लिए नामांकित क्लारेंस थामस पर अनीता हिल ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। न्यायालय में हुए विवाद के बाद सारे मत थामस के पक्ष में गये। 1992 में अनीता के द्वारा उठाये गये इस मुद्दे पर अमेरिकन नारीवादी महिला ‘रिबैका’ ने एक लेख एम एस मैग्जीन में प्रकाशित किया जिसका नाम था – ‘तीसरी लहर की शुरुआत’। जिसमें उन्होंने कहा कि मैं नारीवाद की उत्तरधारा नहीं हूँ बल्कि तीसरी लहर हूँ।
भारत में भी नारीवाद के इतिहास को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है। पहला चरण 19वीं सदी के मध्य से शुरु हुआ जब यूरोपीय पुरुष संघों ने सामाजिक बुराई सती के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। दूसरा चरण 1915 से जब महात्मा गाँधी ने भारत की आजादी के लिए भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं को शामिल किया और धीरे धीरे स्वतंत्र महिला संगठन उभरकर सामने आये। तीसरा चरण भारत की आजादी के बाद शुरु हुआ जो कि विवाह के बाद एक महिला के साथ किये जाने वाले व्यवहार पर केंद्रित था।
    औरत की वास्वविक स्थिति को बताने और सुधारने के लिए कई विचारधाराएं सामने आयीं। ‘मार्क्सवादी विचारधारा’ - मार्क्स का समाजवादी फलसफा औरत की समाज में आर्थिक-सामाजिक स्थिति, शोषण के ढंग और पूंजीपतियों की नीतियों को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करता है। मार्क्स की अवधारणा को एंजेल्स ने एक अलग तरह से विचार करने के लिए सुझाव दिया कि महिलाओं की दासता को जीव विज्ञान अथवा जैविक आधार पर जानने के बजाय इसे इतिहास में खोजना होगा। इसमें कोई मत नहीं है कि किसी भी प्रकार की समस्या के विकास में एक प्रक्रिया निरन्तर कार्य करती रहती है। नारी की विभिन्न समस्याओं को जानने के लिए इतिहास के विकास की प्रक्रिया को, जो विभिन्न घटनाओं से जुड़ी है, जाने बगैर हम किसी वैज्ञानिक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते हैं।
‘उदारवादी नारीवादी विचारधारा’ - बुद्धिजीवियों और विचारकों का एक ऐसा वर्ग सामने आया, जो समाज की विभिन्न समस्याओं पर उदारतापूर्वक विचार करने लगा। नारी समाज में व्याप्त समस्याओं पर, जो मूलतः लिंग भेद, जैविक आधार और असमानता पर खड़ी थी, उदारतापूर्वक नए ढंग से विचार किया जाने लगा। नारी की अस्मिता जो सदियों से अंधेरी गुफाओं में पड़ी थी, उन्हें पहचान मिली। नारी को समाज में सम्मानपूर्वक स्थान देने का प्रयास किया जाने लगा| ‘रेडिकल नारीवादी विचारधारा’ - रेडिकल नारीवादी विचारधारा स्त्री देह को लेकर जो विभिन्न प्रकार से शोषण का शिकार बनती है, उसका विरोध करती है, जैसे बलात्कार वेश्यावृत्ति आदि।
सीमा दास रेडिकल नारीवाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखती हैं: ‘दरअसल ‘रेडिकल नारीवाद ‘में निहित ‘रेडिकल’ शब्द का यह अर्थ ‘अतिवादी’ या ‘हठधर्मी’ कतई नहीं है। इसकी उत्पत्ति लेटिन शब्द से हुई है। रेडिकल नारीवादी सिद्धान्त में पुरुष द्वारा महिलाओं के उत्पीड़न को समाज में व्याप्त सब प्रकार के सत्ता-सम्बन्धों की गैरबराबरी की जड़ में देखा जाता है’।
    हिंदी फिल्मों में स्त्री की छवि मनोरंजन और दिखावे भर तक सीमित न होने के बावजूद जहाँ भी मौका मिला, वह उसने अपनी ताकत, अपने व्यक्तित्त्व का जलवा दिखाते हुए धीरे धीरे ही सही अपनी यात्रा जारी रखी, इस यात्रा में उसे हीनता का भी सामना करना पड़ा और कभी उसने असीम ऊचाइयों को भी देखा | ‘गुणसुन्दरी’ (1934) में परिवार को बचाने वाली एक गुणी कन्या, ‘हंटरवाली’ (1935) में गरीबो की रक्षा, दोषियों को सजा और स्त्री का रॉबिनहुड रूप, ‘मदर इंडिया’ (1957) में पति के छोड़ जाने के बाद परिवार और बच्चों को संभालती राधा, ‘गाइड’ (1965) में रोजी का राजू गाइड के साथ सम्बन्ध बनाकर अपनी आजादी को खोजना, ‘भूमिका’ (1976) एक औरत का ज़िन्दगी के हर मोड़ पर इस्तेमाल, ‘घर’ (1978) नवविवाहित की ज़िन्दगी में तूफ़ान आना जब पति के समक्ष उसकी पत्नी पर गैंग रेप  होता है, ‘अर्थ’ (1982) में एक औरत के स्वाभिमान की कहानी, ‘मंडी’ (1983) वेश्याओं की ओर देखने का समाज का दोगला नज़रिया, ‘खून भरी मांग’ (1988) में बदला लेती नायिका, ‘दामिनी’ (1993) में एक औरत के सिद्धांत और उसके परिवार की बीच की लड़ाई, ‘अस्तित्व’ (2000) यौन नैतिकताओं पर प्रश्न उठाती फिल्म, ‘क्या कहना’ (2000) कुँवारी माँ का अपने बच्चे को जन्म देने का साहस सभी फिल्मों में  नारी के अनेक रूप देखने को मिले |
‘एडम्स रिब’ (1949), ‘आल अबाउट ईव’ (1950), ‘आंटी ममे’ (1958), ‘टू किल अ मॉकिंग बर्ड’ (1962), ‘स्टार्स वार्स’ (1977) ‘एलियन’ (1979), ‘साइलेंस ऑफ़ द लैम्ब’ (1991), ‘हैवेन्ली क्रैचर्स’ (1994), ‘नाउ एंड देन’ (1995), ‘फॉक्स फायर’ (1996), ‘गर्ल इंट्रप्टेड’ (1999), ‘फाइट क्लब’ (2000), ‘मीन गर्ल’ (2004), ‘द वार्ड’ (2010), हन्ना (2011) ,जैसे अमेरिकन फिल्मों में भी औरत की छवि को धीरे-धीरे बदलते हुए देखा गया, जिस तरह समाज की मानसिकता, सोच बदलकर आधुनिक हुई उसी तरह स्त्री की छवि का दायरा भी बदलता गया |
    नारी के शरीर के साथ-साथ उसकी भावनाओं को चोटिल करना, उनके साथ खेलना पुरुष के लिए हर समय एक मनोरंजन रहा है। जहाँ एक तरफ औरत शारीरिक उत्पीड़न से जूझती रही वहीं दूसरी तरफ उसके साथ किए गए भावनात्मक खिलवाड़ ने भी उसके मन मस्तिष्क को तोड़ा। भारतीय और अमेरिकन कैमरे ने नारी की स्थिति को देखा और उसे अपने अंदर उतारने का प्रयास किया। इन दोनों देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि और परिवेश में विभिन्नन्ता होने पर ये फिल्में नारी सशक्तिकरण को सामने लाती हैं      |डॉ. स्वाति शर्मा  अग्रवाल पीजी कॉलेज जयपुर, राजस्थान 


Saturday, April 2, 2022

बाल मनोविज्ञान और आपकी कुंठाएँ


             विषय पढ़ने से पूर्व निवेदन
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विषय बहुत ही संवेदनशील और गंभीर है। संवेदनशील इसलिए की हम अक्सर बालक के मन,मस्तिष्क और उसकी भवनाओं को समझना तो दूर बालक के निजी विचारों पर तनिक भी ध्यान नहीं देते।
    बस एक बात पर ध्यान देते हैं - जो कुछ हम अपने जीवन में विकास नहीं कर पाए या जो पद प्रतिष्ठा हम प्राप्त नहीं कर पाए उसको प्राप्त करने हेतु हम अपने बच्चों के मानस में वो विचार बाल्यकाल से ही  प्रत्यारोपित करना प्रारंभ कर देते हैं।
    या फिर हम अपने रिस्तेदारों ,मित्रों के बच्चों को देखते हैं तो ये अवधारणा प्रत्यक्ष या परोक्ष निर्मित कर लेते हैं की मेरी संतान इन सब बच्चों को पछाड़ कर आगे निकलनी चाहिए।
हम बच्चों को लोरियों में या दुलारते हुए अपनी कुंठाओं को बड़ी ही मधुर गीतात्मक शैली में उसके कानों में पोषित करने लगते हैं।
आखिर हर माँ -बाप अपने बच्चों को डॉक्टर ही क्यों बनाना चाहता है ?
राजा ही क्यों बनाना चाहता है ?
बच्चा जैसे ही इस संसार में अपनी आँख खोलता है हम मोबाइल स्क्रीन को प्रस्तुत कर देते हैं। विडिओ कॉल से वह नवजात शिशु घंटों सामना करता है। हमे न तो शिशु की कोमल आँखों की परवाह होती है और न ही उस मोबाइल से उत्सर्जित घातक रेडिएशन की।
जब शिशु थोड़ा बड़ा होता है, स्वाभाविक रुदन करता है तो हम एक बड़ी स्क्रीन वाले  मोबाइल  से उसकी पक्की दोस्ती करवा देते हैं। भविष्य में वह शिशु उस मोबाइल का नशेड़ी हो जाता है।
जैसे ही बच्चा तीन वर्ष का होता है हम उसे एक ऐसी प्रतिस्पर्धा में झोंक देते हैं जिसकी कल्पना उस बच्चे न की थी। शिक्षित करने के बहाने सबसे पहले हम उस बच्चे के बचपन को छीन लेते हैं। इसके पीछे जो परोक्ष कारण है एकल परिवार में जीने की प्रवर्ती का विकास।
मेरे प्रत्येक माता पिता से कुछेक मूल प्रश्न हैं --
1 क्या आपको गीत संगीत पसंद नहीं है ?
2 क्या आप किसी पेंटिंग या किसी भवन के निर्माण की भव्यता को देखकर उसकी भूरी भूरी प्रशंसा नहीं करते ?
3 क्या आप बढ़िया भोजन बनाने वाले की बड़ाई करने से परहेज करते हैं ?
4 क्या आप किसी बढ़िया दर्जी की प्रशंसा नहीं करते
5 क्या आपको बढ़िया शिक्षकों की तलाश नहीं रहती ?
मित्रो ! ये तो बस उदाहरण भर हैं। कहने का आशय ये हैं की एक संसार मैं प्रत्येक कार्य स्वयं में अति विशिष्ट है।
अगर हम अपने बच्चे को सच्चा प्रेम करते हैं तो फिर हमें उसकी निजी जीवन में प्रारम्भ से ही दखल देना बंद करना होगा।
हम बच्चे के लिए  श्रेष्ट शिक्षा का प्रबंध करें। उसे नैतिक रूप से चरित्रवान बनाने हेतु श्रेष्ट गुरुजनों के सानिध्य में ले जाएँ। उसे आत्मिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाने का पूरा उद्योग करें ताकि भविष्य में वह बालक किसी भी बड़ी से बड़ी मुसीबत का सामना पुरे विवेक से करने केन प्रवीण हो सके।
बावजूद इसके वह जो भी अपने मन,इच्छा और आत्मा से जिस वृति को अपनाना चाहे उसे रोका न जाये। हम अपनी दमित कुंठाओं का शिकार बच्चे को न बनायें।
बच्चे को भारतीय सत्साहित्य पढ़ाया जाये।
संक्षेप में , सभी अभिभावकों से निवेदन है वह बालक जिसे आपने अपनी संपत्ति मान लिया है वास्तव में आप भ्रमित हैं। आप तो केवल एक माध्यम है। वह एक स्वतंत्र आत्मा है। उसका अपना एक वजूद है। सोचिये आप भी तो अपने माता पिता के माध्यम से इस संसार मैं आये थे। नई पीढ़ी को कोसने या अपमानित करने से पूर्व हमें चाहिए की हम उसको संस्कारित करें। यदि आपने बच्चे को संस्कारित कर दिया तो वह श्रेष्ठ स्वयं ही हो जायेगा।  भौतिकता में फंस कर पति पत्नी दोनों नौकरी पर चले जाते हैं। बच्चों को मैड या आया पलटी है। वह दिन भर क्या करता है उसकी आपको कोई खबर नहीं होती। बस धन के आधार पर आप उसे भव्य भवनों वाले स्कूलों में दाखिल करवा कर इतिश्री कर लेते हैं।
आदरणीय , बाल मनोविज्ञान को समझिये और उसे एक बेहतर इन्सान बनाने की प्रक्रिया को जानिए। धन से संस्कार नहीं ख़रीदे जा सकते। मटेलिस्टिक मत बनिए वर्ना वही होगा जो हो रहा है। आपके लिए वृद्धाश्रम तैयार है क्योंकि आपने अपने बच्चे को न तो अपने प्रति ,न अपने परिवार के प्रति ,न अपने देश के प्रति उचित परिचय करवाया ,परिणामतः बच्चा विदेश में जाकर बस गया। दो नुकसान एक साथ होते है।
आपने उस बच्चे को असामाजिक बनाकर अपना बुढ़ापा ख़राब कर लिया।  दूसरा ,जिस देश में पढ़ लिखकर वह ज्ञानी बना उसी देश को छोड़कर चला गया।
सोचिये आपकी निजी कुंठाओं के दुष्परिणामों को।
इस विषय मैं यदि आप मुझसे विस्तृत चर्चा करना चाहते हैं तो मुझे एक मेल पर लिखें -
professor.kbsingh@gmail.com 

Child Psychology and Your Frustrations

 

 Request before reading the topic 

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             The subject is very sensitive and serious. Sensitive because we often do not pay any attention to the child's personal thoughts, far from understanding the child's mind, brain and his feelings. Let us pay attention to just one thing - whatever we could not develop in our life or to achieve the status which we could not achieve, we start implanting those thoughts in the mind of our children from childhood itself. Or if we look at the children of our relatives, friends, then directly or indirectly we create this concept that my child should overtake all these children and go ahead. We begin to feed our frustrations into his ears in a very melodious lyrical style while lulling or caressing the child. Why does every parent want their children to be doctors? Why does he want to be the king? We present the mobile screen as soon as the child opens his eyes to this world. That newborn baby faces hours through video calls. We neither care about the soft eyes of the baby nor the deadly radiation emitted from that mobile. When the baby is a little older, weeps naturally, then we make a good friendship with a mobile with a big screen. In future that child becomes addicted to that mobile. As soon as the child is three years old, we throw him into a competition that the child had not imagined. First of all, on the pretext of educating, we take away the childhood of that child. The indirect reason behind this is the development of tendency to live in nuclear family. I have a few basic questions for every parent - 1 Don't like lyric music? 2 Do you not appreciate the grandeur of a painting or construction of a building? 3 Do you avoid praising the one who makes the fine food? 4 Don't you admire a fine tailor 5 Are you not looking for good teachers? Friends ! These are just examples. It is meant to say that in a world every action is very special in itself. If we truly love our child, then we have to stop interfering in his personal life from the very beginning. We make arrangements for the best education for the child. To make him morally characterful, take him in the company of the best teachers. Do the whole industry of making him strong spiritually and physically so that in future that child can be able to face any biggest trouble with full prudence. Despite this, whatever attitude he wants to adopt with his mind, will and soul, should not be stopped. Let us not make the child a victim of our repressed frustrations. Indian literature should be taught to the child. In short, it is a request to all the parents that the child whom you have taken as your property is really you are confused. You are only a medium. He is a free spirit. He has an existence of his own. Imagine that you too had come to this world through your parents. Before cursing or humiliating the new generation, we should cultivate it. If you have cultivated the child, then he will become the best himself. Trapped in materialism, both husband and wife go to work. Children have a mad or aaya turn. You have no idea what he does throughout the day. Just on the basis of money, you make him happy by getting him admitted in schools with grand buildings. Respected, understand child psychology and know the process of making him a better person. Money cannot buy sacraments. Don't be materialistic or else that is what will happen. The old age home is ready for you because you have not given proper introduction to your child towards yourself, towards your family, nor towards your country, as a result the child has settled abroad. Two losses occur simultaneously. You spoiled your old age by making that child anti-social. Second, he left the country in which he became knowledgeable by reading and writing. Think about the consequences of your personal frustrations. If you want to discuss with me in detail about this topic then write me on an mail -

 professor.kbsingh@gmail.com


Friday, April 1, 2022

बौद्ध धर्म और महाघुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन

प्रस्तावना
    जैसा कि सर्वविदित है हमारे इस अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार का मुख्य विषय है- "समसामयिक विश्व में बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता" (Relevance of Buddhism in the Contemporary world ) जिसमें 13 उपविषयों में से एक है 'बौद्ध धर्म और पर्यटन' (Buddhism and Tourism) जिसके मद्देनजर हम अपना शोध पेपर 'बौद्ध धर्म और महाघुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन' नाम से आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहे हैं।
    

 

Dear readers

          This research paper was edited by me in International Peer Review Referred Indexed Interdisciplinary Multilingual Monthly Research Journal –.

The research Paper is published in the March issue of  INTERNATIONAL RESEARCH MIRROR.Journal. You can also Publish Your Researc Papers in this journal,can contect on-  professor.kbsingh@gmail.com   or  Login website  www.ugcjournal.com

To read the published research paper, click on the weblink given below -

http://www.ugcjournal.com/assets/authors/Baudh_Dharma_aur_Mahaaghumakkad_Rahul_Sankrityayan.pdf

 

जो हमारा उप-विषय "बौद्ध धर्म और पर्यटन" को हमने थोड़ा संशोधित करते हुए "बौद्ध धर्म और महाघुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन' रखा है। इसके पीछे वजह यह है कि राहुल जी पर्यटक अर्थात् देशाटक, यायावर और घुमक्कड़ के पर्याय रहे यानि राहुल जी एक विश्व प्रसिद्ध घुमक्कड़ विद्वान रहे हैं। साथ ही साथ राहुल जी आधुनिक भारत के एक महान बौद्ध विद्वान रहे। जिस समय भारत के मुख्य भूमि से बौद्ध धर्म की चर्चा ही समाप्त हो चुकी थी उस समय में राहुल जी के अथक प्रयासों और शोध-कार्यों ने भारत के मुख्य भूमि में बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि राहुल जी का यही महाघुमक्कड़पन आगे चलकर उनको महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन के रूप में परिवर्तित करता है। इस प्रकार निःसन्देह रूप से हम यह कह सकते हैं कि राहुल जी का पर्यटन और बौद्ध धर्म से गहरा नाता रहा है।
राहुल जी के विषय में
    व्यावसायिक अंग्रेजों के लालच के परिणामस्वरूप जब भारत वर्ष की राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक बागडोर पूरी तरह से अंग्रेज अधिकारियों के हाथ में थी उन्हीं दिनों भारत के एक छोटे से गाँव पन्दहा जिला आजमगढ़, उत्तर प्रदेश में 9 अप्रैल, 1893 ई. एक शिशु का अपने ननिहाल में जन्म हुआ था। उस शिशु का नाम उसके नाना ने केदारनाथ पांडे रखा था, क्योंकि केदारनाथ पांडे की माता कुलवंती अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी और अपने माता-पिता के साथ पंदहा ग्राम में रहा करती थीं। उनके पिता गोवर्धन पांडे धार्मिक विचारों के गरीब किसान थे। सो राहुल जी का लालन-पालन उनकी स्नेहमयी नानी ने किया। और यही केदारनाथ पांडे अपने जीवन के कई पड़ावों से गुजरते हुए आगे चलकर महामानव, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के रूप में विश्व विख्यात हुए। अन्ततः दार्जिलिंग में लगभग 70 वर्ष के शानदार जीवन यात्रा के बाद महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी महायात्रा का महाप्रयाण किया।
    राहुल जी की जीवन-दृष्टि बहुआयामी थी। सत्य की खोज के प्रति तीव्र आग्रह, अदम्य साहस और विद्रोह, गहरी संवेदनशीलता, देश-प्रेम, गहन अध्यवसाय, अनुभव की व्यापक्ता, मानव जीवन और लोक की सूक्ष्म पहचान, पुरातत्व, इतिहास, दर्शन और राजनीति के प्रति विशेष अभिरूचि तथा इन सबसे उत्पन्न विश्व दृष्टि ने उन्हें ऐसा रूप दिया जो चिंतक, दार्शनिक, इतिहासकार, प्राध्यापक, साहित्यकार, राजनीतिज्ञ, भाषा-विशेषज्ञ आदि सभी कुछ एक साथ है। इतने बड़े बहुआयामी व्यक्तित्व के पीछे उनकी सजग घुमक्कड़ वृत्ति रही है।
    बल्कि उनके जीवन का प्रेरणा श्रोत है नवाजिन्दा-बाजिन्दा की वह शेर थी जिसे पढ़कर वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस शेर को अपने जीवन का ध्येय ही बना लिया और उस पर पूरे जीवन अमल करते रहे- वह शेर था-
    सैर कर दुनिया के गाफिल, जिन्दगानी फिर कहाँ।
    जिन्दगी गर कुछ रही, तो नौजवानी फिर कहाँ।
    इस शेर ने राहुल जी के जीवन पर इतना अमिट छाप छोड़ा कि वे आजीवन घुमक्कड़ बने रहे और घुमक्कड़ी को उन्होंने दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु करार दिया। इतना ही नहीं आगे चलकर उन्होंने इससे सम्बन्धित घुमक्कड़ शास्त्र, घुमक्कड़ स्वामी, विस्मृत यात्री इत्यादि बड़े महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना भी की।
    राहुल जी ने कई दृष्टिकोण एवं विचारधाराओं को परखा और उसे पूरी श्रद्धा और पूरे मनोयोग से जीया भी परन्तु हमेशा उन्होंने अपने मन को हमेशा खुला रखा किसी भी बेहतर विचारधारा के लिए। इसीलिए उन्होंने अपने जीवन को विचारधारा के दायरे में घुटन का शिकार होने नहीं दिया। जब भी उनको लगा कि विचारधारा उनके जीवन को रोकने लगी है उसी समय उन्होंने उस विचारधारा को त्यागकर नई उन्नत विचारधारा को अपना लिया। ऐसा करने में उनको किसी प्रकार की लालच कभी भी आड़े नहीं आयी। बचपन से मृत्यु तक राहुल जी का यही व्यवहार रहा है। आगे चलकर राहुल जी यही अद्वितीय स्वभाव उन्हें महामानव महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के रूप में प्रतिष्ठित करता है। इस क्रम में राहुल जी ने अपनी यात्रा की शुरूआत वैष्णव साधु से की और आर्य समाज, बौद्ध दर्शन से होते हुए मार्क्सवाद में प्रवेश किया। और ये अलग बात है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें एक समय पार्टी से निष्कासित भी कर दिया। इसके पीछे जो वजह है उसकी चर्चा करने से विषयान्तर होगा इसलिए उसकी चर्चा कभी और कही और होगी।
बौद्ध धर्म के विषय में
    वैसे तो हम सामान्य बोल-चाल और सामान्य समझ के लिए हम बौद्ध धर्म कहते हैं जो कि ठीक है इसमें कही कोई दिक्कत नहीं है। परन्तु धर्म का जो संकीर्ण अर्थ हम लेते हैं। वह प्रायः यह कि यह संप्रदाय या पंथ जैसा कोई चीज है, जो कि ऐसा नहीं है इसका व्यापक अर्थ है। इसी मद्देनजर यदि हम इसे बौद्ध धर्म के बजाय बौद्ध विद्या या बुद्ध देशना कहें तो ज्यादा उचित और समीचीन प्रतीत होता है। क्योंकि धर्म से जो अर्थ हम प्रायः लेते हैं। उसका अभिधान हम प्रायः आडम्बर, रूढ़ियाँ, ढकोसला, कर्मकाण्ड, अंध विश्वास इत्यादि करते हैं। इस सेंस में यह बौद्ध धर्म नहीं इसका व्यापक अर्थ इसे हम जीवन जीने का मार्ग, जीवन जीने की कला, खुश रहने की कला इत्यादि कहते हैं। इस संदर्भ में भगवान बुद्ध स्वयं कहते हैं कि मैं केवल और केवल तुम्हारा शास्ता ही हूँ मुक्तिदाता नहीं अगर तुम्हें मुक्त होना है निर्वाण प्राप्त करना है। तुम्हें मार्ग पर स्वयं चलना पड़ेगा कोई दूसरा तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता। धम्मपद की एक गाथा भगवान बुद्ध स्वयं कहते हैं।
        
        अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया
        अत्तना हि सुदन्तेन, लाथं लभति दुल्लभं।
अत्तवगो, धम्मपद (160)
    अर्थात्- मनुष्य स्वयं ही अपना स्वामी है। भला दूसरा कोई उसका स्वामी कैसे हो सकता है? मनुष्य अपने आप ही अच्छी तरह से अपना दमन करके दुर्लभ स्वामित्व को, निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।
    आगे एक अन्य गाथा में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-
        अत्ता हि अन्तनो नाथो, अत्ता हि अत्तनो गति।
        तस्मा संज्जमत्तानं, अस्सं भद्र व वाणिजो॥
    बुद्ध कहते हैं मनुष्य स्वयं ही अपना स्वामी है। स्वयं ही वह अपनी गति है। इसलिए तुम अपने आप को संयम में रखो, जैसे व्यापारी अपने सधे हुए घोड़े को अपने वश में रखता है।
    इस प्रकार ऐतिहासिक बुद्ध ने अपनी 'वर्षों की कठोर साधना के आधार पर जो विद्या प्राप्त की मुक्ति अर्थात् निर्वाण के लिए जो कि पहले से विद्यमान थी जिसे उन्होंने पुनः खोज लिया था को उन्होंने अपने जीवन के शेष 45 वर्षों तक अहर्निश लोगों में बाँटा और अपने आपको मार्गदर्शक ही बने रहे। इस प्रकार भगवान बुद्ध अपने बुद्धत्व की प्राप्ति से पूर्व 563 B.C. में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोजन के घर सिद्धार्थ के रूप में जन्म लिए और 29 वर्ष की आयु में गृह त्याग के बाद 6 वर्षों तक इधर-उधर ज्ञान के तलाश में घूमते रहे अन्ततः ज्ञान प्राप्ति के बाद भी 45 वर्षों तक घूम-घूम कर ही अपनी शिक्षा लोगों तक पहुँचाया।
    सारनाथ के अपने प्रथम उपदेश में ही अपने पँच वर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देने के बाद कह दिया था कि-
    "चरथ भिक्खवे चारिक, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय।"
    अर्थात्- भिक्खुओं, बहुत जनों के हित के लिए, बहुत जनों के सुख के लिए, लोक पर अनुकम्पा करने के लिए विचरण करो।
    भगवान बुद्ध ने मुख्यतः चार आर्य सत्य जिन्हें पालि में चत्तारि अदिय सच्चानि एवं अंग्रेजी में Four Noble Truth कहा जाता है। जो इस प्रकार है
1.    दु:ख
2.    दुःख समुदय
3.    दुःख निरोध
4.    दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा
    इन्हीं चार आर्य सत्यों को ढंग से समझने के लिए भगवान बुद्ध ने जीवन पर्यन्त भिन्न-भिन्न श्रोता वर्ग के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाने का प्रयास किया उसी के आधार पर बौद्ध साहित्य त्रिपिटक की रचना हुई। आगे चलकर बौद्ध धर्म की अनेक शाखाए और अनेक बौद्ध ग्रन्थों की रचना भी होती है। इसी आधार पर थेरवाद और थेरवादी ग्रन्थ, महायान और महायान बौद्ध ग्रंथ वज्रयान और बज्रयान ग्रंथों की रचना होती है। इसी प्रकार आगे चलकर एक विपुल बौद्ध ग्रन्थों की रचना अस्तित्व में आता है। जिनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय ही है। इस प्रकार भगवान बुद्ध के सभी देशना का उद्देश्य और इन सभी ग्रन्थों का मकसद है कि लोग इन चार आर्य सत्यों को भली-भाँति समझ सके और इन्हें अपने जीवन में उतार सके तथा मुक्त हो सके और निर्वाण प्राप्त कर सके।
पर्यटन के विषय में
    वैसे पर्यटन भी अपने आप में एक बड़ा विषय है परन्तु चूंकि हमने अपने टॉपिक जो चुना है। उसका उपविषय है- Buddhims and Tourism जिसका शब्दिक अर्थ है। बौद्ध धर्म और पर्यटन। इस लिहाज से पर्यटन पर इसी प्रसंग में चर्चा करना जरूरी है। वैसे तो पर्यटन सेवा क्षेत्र का एक किसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी भूमिका अदा करता है। किसी-किसी देश की जी.डी.पी. का एक बड़ा हिस्सा इसी क्षेत्र से आता है।
    परन्तु हम यहाँ पर्यटन को उस तरह से चर्चा नहीं कर रहे हैं जैसे कि पर्यटन के कई प्रकार है जैसे- धार्मिक पर्यटन, चिकित्सा पर्यटन, प्राकृतिक पर्यटन इत्यादि वैसे तो हम अपने शोध पत्र को एक इस दिशा में भी रख सकते थे कि किस प्रकार से बौद्ध धर्म और बौद्ध धर्म से जुड़ी महत्वपूर्ण जगहों का पर्यटन के दृष्टि से क्या महत्व है। परन्तु हमने अपने शोध पत्र को इस दिशा में रखा है कि कैसे पर्यटन या कहें घुमक्कड़ी, यायावरी, देशाटन और बौद्ध धर्म का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध रहा है। इस विषय में हमने पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि कैसे घुमक्कड़ वृत्ति राहुल सांकृत्यायन को बौद्ध धर्म से जोड़ती है और कैसे स्वयं भगवान बुद्ध अपने प्रथम उपदेश के बाद अपने पञ्च वग्गीय भिक्षुओं को चरैवेति- चरैवेति का आदेश देते हैं और स्वयं 45 वर्षों तक लगातार घूम-घूम कर चारिका करते हुए बौद्ध विद्या लोगों को सिखाया।
निष्कर्ष
    इस प्रकार हम देखते हैं कि पर्यटन / देशाटन । घुमक्कड़ी जो कि सोद्देश्यपूर्ण और आँख, कान, नाक खुली रखने हेतु की जाए तो व्यक्ति एक बड़ा विद्वान बन सकता है और समाज के लिए बहुत ही उपयोगी भी।
    परन्तु आज कल पर्यटन को सिर्फ टूर एण्ड ट्रेवेल कम्पनियों द्वारा पैकेज टूर को ही वरीयता देते हैं जिसमें सिर्फ लोगों का केवल मनोरंजन का उद्देश्य ही होता न कि एक खोजी दृष्टि। और साथ ही हम देखते हैं कि बौद्ध धर्म में भी भगवान बुद्ध द्वारा घूम-घूम कर बौद्ध देशना की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सोद्देश्यपूर्ण यात्राएँ व्यक्ति के व्यक्तित्व को बड़ा बनाने में सहायक सिद्ध होती है।
    साथ ही महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड़ी को सर्वश्रेष्ठ धर्म माना है और यह घुमक्कड़ धर्म को अनादि सनातन धर्म स्वीकारा है, यह मानते हुए उन्होंने एक ग्रन्थ लिखा जिसका नाम उन्होंने घुमक्कड़ शास्त्र रखा। 168 पृष्ठ की घुमक्कड़ शास्त्र वर्ष 1948 में किताब महल प्रकाशन, से प्रकाशित है। 'घुमक्कड़ शास्त्र' कोई यात्रा का वर्णन या यात्रा वृत्तान्त नहीं है। 'घुमक्कड़ शास्त्र' यात्रा, देशाटन और देश भ्रमण के महत्व को समझाने वाला सैद्धांतिक ग्रंथ है। इस पुस्तक के विषयवस्तु पर प्रकाश डालते हुए स्वयं राहुल जी ने प्रथम संस्करण की भूमिका में लिखा है, घुमक्कड़ी का अंकुर पैदा करना इस शास्त्र का काम नहीं, बल्कि जन्मजात अंकुर की पुष्टि, परिवर्द्धन तथा मार्ग दर्शन इस ग्रंथ का लक्ष्य है। आगे राहुल जी कहते हैं घुमक्कड़ी तपस्या है, सन्यास है, मोही घुमक्कड़ नहीं हो सकता है। परिवार और देश का मोह छोड़ना होगा। देह-सुख, स्वाद का मोह आदि भी नहीं। नदी, जंगल, समुद्र पार करने का साहस आवश्यक है। इन्द्रियों का संयम आवश्यक है। इंद्रिय लोलुप से घुमक्कड़ी संभव नहीं।
    देश-देश के पानी, पथ्य और परम्परा को पचाने की क्षमता चाहिए। भाषा या संकेत करने की शक्ति आवश्यक है, भाषा और भूगोल का ज्ञान आवश्यक है। घुमक्कड़ी के कारण ही राहुल जी ने अनेक भाषाएँ सीखी।
डॉ. रूद्र प्रताप यादव
पूर्व शोध छात्र
बौद्ध अध्ययन विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ई.मेल-rudrapratapyo@gmail.com
  संदर्भ ग्रंथ सूची
•    सांकृत्यायन राहुल, घुमक्कड़ शास्त्र, किताब महल प्रकाशन, 1949
•    सांकृत्यायन राहुल, घुमक्कड़ स्वामी, किताब महल प्रकाशन, 1956
•     सांकृत्यायन राहुल, विश्व की रूपरेखा, किताब महल प्रकाशन, 1941
•     सांकृत्यायन राहुल, बौद्ध-दर्शन, किताब महल प्रकाशन, 1943
•    सांकृत्यायन राहुल, बुद्धचर्या, किताब महल प्रकाशन, 1930
•    सांकृत्यायन राहुल, महामानव बुद्ध, किताब महल प्रकाशन, 1956
•    सांकृत्यायन राहुल, बौद्ध संस्कृति, किताब महल प्रकाशन, 1949
•    सांकृत्यायन राहुल, एशिया के दुर्गम भूखंडों में, किताब महल प्रकाशन, 1956
•    सांकृत्यायन राहुल, महामानव महापण्डित, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995
•    मुले गुणाकर, स्वयंभू महापंडित, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली-1993
•    वापट पी.वी. बौद्ध धर्म के 2500 वर्ष, प्रकाशन विभाग, दिल्ली, 1956