विषय पढ़ने से पूर्व निवेदन
यदि
आपको मेरा आर्टिकल पसंद आये तो प्लीज इस ब्लॉग को फॉलो जरूर कीजिए और
इस ब्लॉग को विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्म जैसे व्हाट्सप्प ,फेसबुक
,इंस्टाग्राम ,ट्विटर आदि पर शेयर जरूर कीजिएगा । आपके दाहिनी तरफ फॉलो
लिखा है ,उसे क्लिक कर दीजिये। आभार। . किसी भी देश की प्रगति का मूल्यांकन उस देश की स्त्रियों की स्थिति से लगाया जा सकता है। देश के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य में नारी को रखकर देखा जाए तो कुछ अपवादों को छोड़कर हम एक ही बिन्दु पर पहुँचेंगे कि पुरुषों ने सदियों तक उसे दोयम दर्जे का प्राणी बनाकर रखा। दास बनाया। साम्राज्यवादी व्यवस्था में स्त्री को जबरन पत्नी बनाकर रखा गया। कहीं उसे तरह-तरह के प्रलोभन देकर भोग और विलासिता की वस्तु बनाकर शोषण किया। जहाँगीर का 48 वर्ष का बेटा तख्ते सल्तनत पर बैठा तो मुसाहिबों से कहने लगा, ‘मैं अपने बाप के सामने तीन बरस तक दुश्मनों से लड़ा हूँ और हर तरफ फौजकशी की है अब मेरा इरादा मुल्कगिरी करने का नहीं है। मैं चाहता हूँ कि बाकी उम्र ऐशो-इशरत में बसर करूँ। मशहूर है कि फिर उसने पंद्रह हजार औरतें अपने महल में जमा कीं और एक शहर औरतों का बसाया जिसमें मर्द न थ। जहाँ कोई हसीन औरत सुनता, किसी न किसी तरह अपने महल में मंगवा लेता’।
इतिहास के पन्नों को पलटने पर भारतीय नारी की स्थिति और दशा एक दयनीय, निर्बल, पुरुषों पर आश्रित दिखाई पड़ती है । एक साधारण सी बात यह है कि जिस समाज में जितना अधिक शोषण व उत्पीड़न होगा उस समाज की परतों में आंदोलन की चिंगारियाँ अंदर ही अंदर सुलगती हैं और एक दिन ज्वालामुखी की तरह फटती हैं। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महादेव गोविन्द रनाडे, महात्मा ज्योतिबाफूले, महात्मा गाँधी जैसे अनेक लोगों ने नारी जगत के उद्धार के लिए और उनके व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए उन जातिगत व धार्मिक बंधनों को समाप्त करने के लिए संघर्ष किया, जिससे वे पुरुष समाज के अत्याचारों और धार्मिक अंधविश्वासों से संघर्ष कर सकें। ये सब लोग कहीं न कहीं नारी सशक्तिकरण को बल प्रदान करने में सहायक बनें।
पुरुष प्रधान समाज में नारी की स्थिति को बताने का प्रयास हिंदी साहित्य में भी होता रहा। आठवें दशक में महिला लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं में स्त्री विमर्श को उभारने का प्रयास किया। ‘उषा प्रियंवदा’, ‘मन्नू भंडारी’, ‘मृदुला गर्ग’, ‘कृष्णा अग्निहोत्री’, ‘राजी सेठ’, ‘प्रभा खेतान’ ने अपनी रचनाओं से पाठकों का ध्यान खींचा। ‘चित्र मुद्गल’ ने अपने उपन्यास ‘एक जमीन अपनी’ में लिखा है – ‘औरत बोनसाई का पौधा नहीं है - जब जी चाहे उसकी जड़ें काटकर उसे गमले में वापिस रोप दिया। वह बौना बनाये रखने की इस साजिश को अस्वीकार करती है’।
‘मैत्रेयी पुष्पा’ लिखती है कि – ‘विभिन्न मानसिकता के इस दुमुंहे समाज में आज की नारी मात्र वस्तु, मात्र संपत्ति, विनिमय की चीज है’। ‘जयशंकर प्रसाद का नाटक ध्रुवस्वामिनी’ हो या फिर ‘हजारीप्रसाद जी का उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा’ या ‘मुझे चाँद चाहिए’ (सुरेन्द्र वर्मा), ‘वसंती’ (भीष्म साहनी), ‘अर्धनारीश्वर’ (विष्णु प्रभाकर), ‘बेतवा बहती रही’ (मैत्रेयी पुष्पा), ‘थकी हुई सुबह’ (राम दरश मिश्र), ‘कीर्ति कथा’ (कश्मीरी लाल) हिंदी साहित्य नारी को गरिमा प्रदान करता है, उसे पवित्र बनाता है एवं पूज्य मानता है।
‘सिमोन द बोउआ’ की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ में नारीवाद पर गम्भीर विचार प्रकट किया गया है और विषय को एक नया कोण सोचने के लिए दिया है। वह कहती हैं, ‘नारीवाद’ से मेरा तात्पर्य यह है कि कुछ खास स्त्री मुद्दों पर वर्ग संघर्ष से हटकर स्वतंत्र रूप से संघर्ष करना है। मैं आज भी अपने इसी विचार पर कायम हूँ। मेरी परिभाषा के अनुसार ‘स्त्रियाँ और वे पुरुष भी नारीवादी हैं, जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था में औरतों की स्थिति में परिवर्तन के लिए संघर्षरत हैं। यह सच है कि पूरे समाज की मुक्ति के बर्गर स्त्रियों की पूर्ण मुक्ति संभव नहीं है, लेकिन फिर भी नारीवाद इस लक्ष्य के लिए आज और अभी संघर्षरत हैं। इस अर्थ में मैं नारीवादी हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि औरत की मुक्ति के लिए हमें आज और अभी संघर्ष करना चाहिए, इससे पहले की समाजवाद का हमारा स्वप्न पूरा हो। ‘द सेकण्ड सेक्स’ लिखे जाने के तेईस वर्ष बाद अपने को नारीवादी घोषित करने के मूल कारक के रूप में स्वीकार करती है।‘
अमेरिका में नारीवाद की पहली लहर सिनेका फाल्स सम्मेलन के तहत उठी। यह औरतों के अधिकारों से जुड़ा पहला सम्मेलन था जो कि 19-20 जुलाई 1948 को न्यूयार्क में आयोजित हुआ था। सम्मेलन का विशेष मुद्दा यह था कि 1840 में जब एलिजाबेथ केडी लुक्रिटिया मोट से विश्व दास मुक्ति सम्मेलन में मिली तब उस सम्मेलन में मोट और अन्य अमेरिकी औरतों को बैठने के लिए बस इसलिए मना किया गया था क्योंकि वे सब औरतें थीं। इसके बाद केडी और मोट ने नारी की स्थिति को बताने के लिए एक सम्मेलन बुलाया। 300 से अधिक औरतें और पुरुषों ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया। ‘भावनाओं और संकल्पों की घोषणा’ नामक निष्कर्ष पर लगभग 68 औरतों और 32 पुरुषों ने अपने हस्ताक्षर किया।
अमेरिका में यह लहर दूसरी बार 1968 में आयी जब बेटी फ्रीडन ने ‘द फेमिनाइन मिस्टीक’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें इन्होंने बताया कि सिनेमा किस तरह नारी के चरित्र को दिखाता है। केवल घरेलू कार्यों में लगकर महिलाएँ अपनी क्षमताओं और हुनर को दबाती जा रही हैं।
तीसरी लहर 1990 में तब आयी जब यूनाइटेड स्टेट के उच्चतम न्यायालय के लिए नामांकित क्लारेंस थामस पर अनीता हिल ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। न्यायालय में हुए विवाद के बाद सारे मत थामस के पक्ष में गये। 1992 में अनीता के द्वारा उठाये गये इस मुद्दे पर अमेरिकन नारीवादी महिला ‘रिबैका’ ने एक लेख एम एस मैग्जीन में प्रकाशित किया जिसका नाम था – ‘तीसरी लहर की शुरुआत’। जिसमें उन्होंने कहा कि मैं नारीवाद की उत्तरधारा नहीं हूँ बल्कि तीसरी लहर हूँ।
भारत में भी नारीवाद के इतिहास को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है। पहला चरण 19वीं सदी के मध्य से शुरु हुआ जब यूरोपीय पुरुष संघों ने सामाजिक बुराई सती के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। दूसरा चरण 1915 से जब महात्मा गाँधी ने भारत की आजादी के लिए भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं को शामिल किया और धीरे धीरे स्वतंत्र महिला संगठन उभरकर सामने आये। तीसरा चरण भारत की आजादी के बाद शुरु हुआ जो कि विवाह के बाद एक महिला के साथ किये जाने वाले व्यवहार पर केंद्रित था।
औरत की वास्वविक स्थिति को बताने और सुधारने के लिए कई विचारधाराएं सामने आयीं। ‘मार्क्सवादी विचारधारा’ - मार्क्स का समाजवादी फलसफा औरत की समाज में आर्थिक-सामाजिक स्थिति, शोषण के ढंग और पूंजीपतियों की नीतियों को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करता है। मार्क्स की अवधारणा को एंजेल्स ने एक अलग तरह से विचार करने के लिए सुझाव दिया कि महिलाओं की दासता को जीव विज्ञान अथवा जैविक आधार पर जानने के बजाय इसे इतिहास में खोजना होगा। इसमें कोई मत नहीं है कि किसी भी प्रकार की समस्या के विकास में एक प्रक्रिया निरन्तर कार्य करती रहती है। नारी की विभिन्न समस्याओं को जानने के लिए इतिहास के विकास की प्रक्रिया को, जो विभिन्न घटनाओं से जुड़ी है, जाने बगैर हम किसी वैज्ञानिक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते हैं।
‘उदारवादी नारीवादी विचारधारा’ - बुद्धिजीवियों और विचारकों का एक ऐसा वर्ग सामने आया, जो समाज की विभिन्न समस्याओं पर उदारतापूर्वक विचार करने लगा। नारी समाज में व्याप्त समस्याओं पर, जो मूलतः लिंग भेद, जैविक आधार और असमानता पर खड़ी थी, उदारतापूर्वक नए ढंग से विचार किया जाने लगा। नारी की अस्मिता जो सदियों से अंधेरी गुफाओं में पड़ी थी, उन्हें पहचान मिली। नारी को समाज में सम्मानपूर्वक स्थान देने का प्रयास किया जाने लगा| ‘रेडिकल नारीवादी विचारधारा’ - रेडिकल नारीवादी विचारधारा स्त्री देह को लेकर जो विभिन्न प्रकार से शोषण का शिकार बनती है, उसका विरोध करती है, जैसे बलात्कार वेश्यावृत्ति आदि।
सीमा दास रेडिकल नारीवाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखती हैं: ‘दरअसल ‘रेडिकल नारीवाद ‘में निहित ‘रेडिकल’ शब्द का यह अर्थ ‘अतिवादी’ या ‘हठधर्मी’ कतई नहीं है। इसकी उत्पत्ति लेटिन शब्द से हुई है। रेडिकल नारीवादी सिद्धान्त में पुरुष द्वारा महिलाओं के उत्पीड़न को समाज में व्याप्त सब प्रकार के सत्ता-सम्बन्धों की गैरबराबरी की जड़ में देखा जाता है’।
हिंदी फिल्मों में स्त्री की छवि मनोरंजन और दिखावे भर तक सीमित न होने के बावजूद जहाँ भी मौका मिला, वह उसने अपनी ताकत, अपने व्यक्तित्त्व का जलवा दिखाते हुए धीरे धीरे ही सही अपनी यात्रा जारी रखी, इस यात्रा में उसे हीनता का भी सामना करना पड़ा और कभी उसने असीम ऊचाइयों को भी देखा | ‘गुणसुन्दरी’ (1934) में परिवार को बचाने वाली एक गुणी कन्या, ‘हंटरवाली’ (1935) में गरीबो की रक्षा, दोषियों को सजा और स्त्री का रॉबिनहुड रूप, ‘मदर इंडिया’ (1957) में पति के छोड़ जाने के बाद परिवार और बच्चों को संभालती राधा, ‘गाइड’ (1965) में रोजी का राजू गाइड के साथ सम्बन्ध बनाकर अपनी आजादी को खोजना, ‘भूमिका’ (1976) एक औरत का ज़िन्दगी के हर मोड़ पर इस्तेमाल, ‘घर’ (1978) नवविवाहित की ज़िन्दगी में तूफ़ान आना जब पति के समक्ष उसकी पत्नी पर गैंग रेप होता है, ‘अर्थ’ (1982) में एक औरत के स्वाभिमान की कहानी, ‘मंडी’ (1983) वेश्याओं की ओर देखने का समाज का दोगला नज़रिया, ‘खून भरी मांग’ (1988) में बदला लेती नायिका, ‘दामिनी’ (1993) में एक औरत के सिद्धांत और उसके परिवार की बीच की लड़ाई, ‘अस्तित्व’ (2000) यौन नैतिकताओं पर प्रश्न उठाती फिल्म, ‘क्या कहना’ (2000) कुँवारी माँ का अपने बच्चे को जन्म देने का साहस सभी फिल्मों में नारी के अनेक रूप देखने को मिले |
‘एडम्स रिब’ (1949), ‘आल अबाउट ईव’ (1950), ‘आंटी ममे’ (1958), ‘टू किल अ मॉकिंग बर्ड’ (1962), ‘स्टार्स वार्स’ (1977) ‘एलियन’ (1979), ‘साइलेंस ऑफ़ द लैम्ब’ (1991), ‘हैवेन्ली क्रैचर्स’ (1994), ‘नाउ एंड देन’ (1995), ‘फॉक्स फायर’ (1996), ‘गर्ल इंट्रप्टेड’ (1999), ‘फाइट क्लब’ (2000), ‘मीन गर्ल’ (2004), ‘द वार्ड’ (2010), हन्ना (2011) ,जैसे अमेरिकन फिल्मों में भी औरत की छवि को धीरे-धीरे बदलते हुए देखा गया, जिस तरह समाज की मानसिकता, सोच बदलकर आधुनिक हुई उसी तरह स्त्री की छवि का दायरा भी बदलता गया |
नारी के शरीर के साथ-साथ उसकी भावनाओं को चोटिल करना, उनके साथ खेलना पुरुष के लिए हर समय एक मनोरंजन रहा है। जहाँ एक तरफ औरत शारीरिक उत्पीड़न से जूझती रही वहीं दूसरी तरफ उसके साथ किए गए भावनात्मक खिलवाड़ ने भी उसके मन मस्तिष्क को तोड़ा। भारतीय और अमेरिकन कैमरे ने नारी की स्थिति को देखा और उसे अपने अंदर उतारने का प्रयास किया। इन दोनों देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि और परिवेश में विभिन्नन्ता होने पर ये फिल्में नारी सशक्तिकरण को सामने लाती हैं |डॉ. स्वाति शर्मा अग्रवाल पीजी कॉलेज जयपुर, राजस्थान
Wednesday, April 6, 2022
अमेरिकी और भारतीय सिनेमा एवं साहित्य में नारीवादी विचारधारा
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
-
Right to information Transparency, accountability, sensitivity and accountability are the components that set the ideal paradigm for t...
-
1.Introduction Human capital is an important determinant of technological progress and economic growth of a country...
-
पहले वाले ब्लॉग में आपने पढ़ा होगा-सफलता प्राप्ति हेतु बुनियादी तौर पर क्या करना अनिवार्य है। यदि आप मेरी उन बातों से सहमत हैं...
No comments:
Post a Comment