Friday, April 1, 2022

बौद्ध धर्म और महाघुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन

प्रस्तावना
    जैसा कि सर्वविदित है हमारे इस अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार का मुख्य विषय है- "समसामयिक विश्व में बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता" (Relevance of Buddhism in the Contemporary world ) जिसमें 13 उपविषयों में से एक है 'बौद्ध धर्म और पर्यटन' (Buddhism and Tourism) जिसके मद्देनजर हम अपना शोध पेपर 'बौद्ध धर्म और महाघुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन' नाम से आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहे हैं।
    

 

Dear readers

          This research paper was edited by me in International Peer Review Referred Indexed Interdisciplinary Multilingual Monthly Research Journal –.

The research Paper is published in the March issue of  INTERNATIONAL RESEARCH MIRROR.Journal. You can also Publish Your Researc Papers in this journal,can contect on-  professor.kbsingh@gmail.com   or  Login website  www.ugcjournal.com

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http://www.ugcjournal.com/assets/authors/Baudh_Dharma_aur_Mahaaghumakkad_Rahul_Sankrityayan.pdf

 

जो हमारा उप-विषय "बौद्ध धर्म और पर्यटन" को हमने थोड़ा संशोधित करते हुए "बौद्ध धर्म और महाघुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन' रखा है। इसके पीछे वजह यह है कि राहुल जी पर्यटक अर्थात् देशाटक, यायावर और घुमक्कड़ के पर्याय रहे यानि राहुल जी एक विश्व प्रसिद्ध घुमक्कड़ विद्वान रहे हैं। साथ ही साथ राहुल जी आधुनिक भारत के एक महान बौद्ध विद्वान रहे। जिस समय भारत के मुख्य भूमि से बौद्ध धर्म की चर्चा ही समाप्त हो चुकी थी उस समय में राहुल जी के अथक प्रयासों और शोध-कार्यों ने भारत के मुख्य भूमि में बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि राहुल जी का यही महाघुमक्कड़पन आगे चलकर उनको महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन के रूप में परिवर्तित करता है। इस प्रकार निःसन्देह रूप से हम यह कह सकते हैं कि राहुल जी का पर्यटन और बौद्ध धर्म से गहरा नाता रहा है।
राहुल जी के विषय में
    व्यावसायिक अंग्रेजों के लालच के परिणामस्वरूप जब भारत वर्ष की राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक बागडोर पूरी तरह से अंग्रेज अधिकारियों के हाथ में थी उन्हीं दिनों भारत के एक छोटे से गाँव पन्दहा जिला आजमगढ़, उत्तर प्रदेश में 9 अप्रैल, 1893 ई. एक शिशु का अपने ननिहाल में जन्म हुआ था। उस शिशु का नाम उसके नाना ने केदारनाथ पांडे रखा था, क्योंकि केदारनाथ पांडे की माता कुलवंती अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी और अपने माता-पिता के साथ पंदहा ग्राम में रहा करती थीं। उनके पिता गोवर्धन पांडे धार्मिक विचारों के गरीब किसान थे। सो राहुल जी का लालन-पालन उनकी स्नेहमयी नानी ने किया। और यही केदारनाथ पांडे अपने जीवन के कई पड़ावों से गुजरते हुए आगे चलकर महामानव, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के रूप में विश्व विख्यात हुए। अन्ततः दार्जिलिंग में लगभग 70 वर्ष के शानदार जीवन यात्रा के बाद महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी महायात्रा का महाप्रयाण किया।
    राहुल जी की जीवन-दृष्टि बहुआयामी थी। सत्य की खोज के प्रति तीव्र आग्रह, अदम्य साहस और विद्रोह, गहरी संवेदनशीलता, देश-प्रेम, गहन अध्यवसाय, अनुभव की व्यापक्ता, मानव जीवन और लोक की सूक्ष्म पहचान, पुरातत्व, इतिहास, दर्शन और राजनीति के प्रति विशेष अभिरूचि तथा इन सबसे उत्पन्न विश्व दृष्टि ने उन्हें ऐसा रूप दिया जो चिंतक, दार्शनिक, इतिहासकार, प्राध्यापक, साहित्यकार, राजनीतिज्ञ, भाषा-विशेषज्ञ आदि सभी कुछ एक साथ है। इतने बड़े बहुआयामी व्यक्तित्व के पीछे उनकी सजग घुमक्कड़ वृत्ति रही है।
    बल्कि उनके जीवन का प्रेरणा श्रोत है नवाजिन्दा-बाजिन्दा की वह शेर थी जिसे पढ़कर वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस शेर को अपने जीवन का ध्येय ही बना लिया और उस पर पूरे जीवन अमल करते रहे- वह शेर था-
    सैर कर दुनिया के गाफिल, जिन्दगानी फिर कहाँ।
    जिन्दगी गर कुछ रही, तो नौजवानी फिर कहाँ।
    इस शेर ने राहुल जी के जीवन पर इतना अमिट छाप छोड़ा कि वे आजीवन घुमक्कड़ बने रहे और घुमक्कड़ी को उन्होंने दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु करार दिया। इतना ही नहीं आगे चलकर उन्होंने इससे सम्बन्धित घुमक्कड़ शास्त्र, घुमक्कड़ स्वामी, विस्मृत यात्री इत्यादि बड़े महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना भी की।
    राहुल जी ने कई दृष्टिकोण एवं विचारधाराओं को परखा और उसे पूरी श्रद्धा और पूरे मनोयोग से जीया भी परन्तु हमेशा उन्होंने अपने मन को हमेशा खुला रखा किसी भी बेहतर विचारधारा के लिए। इसीलिए उन्होंने अपने जीवन को विचारधारा के दायरे में घुटन का शिकार होने नहीं दिया। जब भी उनको लगा कि विचारधारा उनके जीवन को रोकने लगी है उसी समय उन्होंने उस विचारधारा को त्यागकर नई उन्नत विचारधारा को अपना लिया। ऐसा करने में उनको किसी प्रकार की लालच कभी भी आड़े नहीं आयी। बचपन से मृत्यु तक राहुल जी का यही व्यवहार रहा है। आगे चलकर राहुल जी यही अद्वितीय स्वभाव उन्हें महामानव महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के रूप में प्रतिष्ठित करता है। इस क्रम में राहुल जी ने अपनी यात्रा की शुरूआत वैष्णव साधु से की और आर्य समाज, बौद्ध दर्शन से होते हुए मार्क्सवाद में प्रवेश किया। और ये अलग बात है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें एक समय पार्टी से निष्कासित भी कर दिया। इसके पीछे जो वजह है उसकी चर्चा करने से विषयान्तर होगा इसलिए उसकी चर्चा कभी और कही और होगी।
बौद्ध धर्म के विषय में
    वैसे तो हम सामान्य बोल-चाल और सामान्य समझ के लिए हम बौद्ध धर्म कहते हैं जो कि ठीक है इसमें कही कोई दिक्कत नहीं है। परन्तु धर्म का जो संकीर्ण अर्थ हम लेते हैं। वह प्रायः यह कि यह संप्रदाय या पंथ जैसा कोई चीज है, जो कि ऐसा नहीं है इसका व्यापक अर्थ है। इसी मद्देनजर यदि हम इसे बौद्ध धर्म के बजाय बौद्ध विद्या या बुद्ध देशना कहें तो ज्यादा उचित और समीचीन प्रतीत होता है। क्योंकि धर्म से जो अर्थ हम प्रायः लेते हैं। उसका अभिधान हम प्रायः आडम्बर, रूढ़ियाँ, ढकोसला, कर्मकाण्ड, अंध विश्वास इत्यादि करते हैं। इस सेंस में यह बौद्ध धर्म नहीं इसका व्यापक अर्थ इसे हम जीवन जीने का मार्ग, जीवन जीने की कला, खुश रहने की कला इत्यादि कहते हैं। इस संदर्भ में भगवान बुद्ध स्वयं कहते हैं कि मैं केवल और केवल तुम्हारा शास्ता ही हूँ मुक्तिदाता नहीं अगर तुम्हें मुक्त होना है निर्वाण प्राप्त करना है। तुम्हें मार्ग पर स्वयं चलना पड़ेगा कोई दूसरा तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता। धम्मपद की एक गाथा भगवान बुद्ध स्वयं कहते हैं।
        
        अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया
        अत्तना हि सुदन्तेन, लाथं लभति दुल्लभं।
अत्तवगो, धम्मपद (160)
    अर्थात्- मनुष्य स्वयं ही अपना स्वामी है। भला दूसरा कोई उसका स्वामी कैसे हो सकता है? मनुष्य अपने आप ही अच्छी तरह से अपना दमन करके दुर्लभ स्वामित्व को, निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।
    आगे एक अन्य गाथा में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-
        अत्ता हि अन्तनो नाथो, अत्ता हि अत्तनो गति।
        तस्मा संज्जमत्तानं, अस्सं भद्र व वाणिजो॥
    बुद्ध कहते हैं मनुष्य स्वयं ही अपना स्वामी है। स्वयं ही वह अपनी गति है। इसलिए तुम अपने आप को संयम में रखो, जैसे व्यापारी अपने सधे हुए घोड़े को अपने वश में रखता है।
    इस प्रकार ऐतिहासिक बुद्ध ने अपनी 'वर्षों की कठोर साधना के आधार पर जो विद्या प्राप्त की मुक्ति अर्थात् निर्वाण के लिए जो कि पहले से विद्यमान थी जिसे उन्होंने पुनः खोज लिया था को उन्होंने अपने जीवन के शेष 45 वर्षों तक अहर्निश लोगों में बाँटा और अपने आपको मार्गदर्शक ही बने रहे। इस प्रकार भगवान बुद्ध अपने बुद्धत्व की प्राप्ति से पूर्व 563 B.C. में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोजन के घर सिद्धार्थ के रूप में जन्म लिए और 29 वर्ष की आयु में गृह त्याग के बाद 6 वर्षों तक इधर-उधर ज्ञान के तलाश में घूमते रहे अन्ततः ज्ञान प्राप्ति के बाद भी 45 वर्षों तक घूम-घूम कर ही अपनी शिक्षा लोगों तक पहुँचाया।
    सारनाथ के अपने प्रथम उपदेश में ही अपने पँच वर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देने के बाद कह दिया था कि-
    "चरथ भिक्खवे चारिक, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय।"
    अर्थात्- भिक्खुओं, बहुत जनों के हित के लिए, बहुत जनों के सुख के लिए, लोक पर अनुकम्पा करने के लिए विचरण करो।
    भगवान बुद्ध ने मुख्यतः चार आर्य सत्य जिन्हें पालि में चत्तारि अदिय सच्चानि एवं अंग्रेजी में Four Noble Truth कहा जाता है। जो इस प्रकार है
1.    दु:ख
2.    दुःख समुदय
3.    दुःख निरोध
4.    दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा
    इन्हीं चार आर्य सत्यों को ढंग से समझने के लिए भगवान बुद्ध ने जीवन पर्यन्त भिन्न-भिन्न श्रोता वर्ग के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाने का प्रयास किया उसी के आधार पर बौद्ध साहित्य त्रिपिटक की रचना हुई। आगे चलकर बौद्ध धर्म की अनेक शाखाए और अनेक बौद्ध ग्रन्थों की रचना भी होती है। इसी आधार पर थेरवाद और थेरवादी ग्रन्थ, महायान और महायान बौद्ध ग्रंथ वज्रयान और बज्रयान ग्रंथों की रचना होती है। इसी प्रकार आगे चलकर एक विपुल बौद्ध ग्रन्थों की रचना अस्तित्व में आता है। जिनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय ही है। इस प्रकार भगवान बुद्ध के सभी देशना का उद्देश्य और इन सभी ग्रन्थों का मकसद है कि लोग इन चार आर्य सत्यों को भली-भाँति समझ सके और इन्हें अपने जीवन में उतार सके तथा मुक्त हो सके और निर्वाण प्राप्त कर सके।
पर्यटन के विषय में
    वैसे पर्यटन भी अपने आप में एक बड़ा विषय है परन्तु चूंकि हमने अपने टॉपिक जो चुना है। उसका उपविषय है- Buddhims and Tourism जिसका शब्दिक अर्थ है। बौद्ध धर्म और पर्यटन। इस लिहाज से पर्यटन पर इसी प्रसंग में चर्चा करना जरूरी है। वैसे तो पर्यटन सेवा क्षेत्र का एक किसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी भूमिका अदा करता है। किसी-किसी देश की जी.डी.पी. का एक बड़ा हिस्सा इसी क्षेत्र से आता है।
    परन्तु हम यहाँ पर्यटन को उस तरह से चर्चा नहीं कर रहे हैं जैसे कि पर्यटन के कई प्रकार है जैसे- धार्मिक पर्यटन, चिकित्सा पर्यटन, प्राकृतिक पर्यटन इत्यादि वैसे तो हम अपने शोध पत्र को एक इस दिशा में भी रख सकते थे कि किस प्रकार से बौद्ध धर्म और बौद्ध धर्म से जुड़ी महत्वपूर्ण जगहों का पर्यटन के दृष्टि से क्या महत्व है। परन्तु हमने अपने शोध पत्र को इस दिशा में रखा है कि कैसे पर्यटन या कहें घुमक्कड़ी, यायावरी, देशाटन और बौद्ध धर्म का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध रहा है। इस विषय में हमने पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि कैसे घुमक्कड़ वृत्ति राहुल सांकृत्यायन को बौद्ध धर्म से जोड़ती है और कैसे स्वयं भगवान बुद्ध अपने प्रथम उपदेश के बाद अपने पञ्च वग्गीय भिक्षुओं को चरैवेति- चरैवेति का आदेश देते हैं और स्वयं 45 वर्षों तक लगातार घूम-घूम कर चारिका करते हुए बौद्ध विद्या लोगों को सिखाया।
निष्कर्ष
    इस प्रकार हम देखते हैं कि पर्यटन / देशाटन । घुमक्कड़ी जो कि सोद्देश्यपूर्ण और आँख, कान, नाक खुली रखने हेतु की जाए तो व्यक्ति एक बड़ा विद्वान बन सकता है और समाज के लिए बहुत ही उपयोगी भी।
    परन्तु आज कल पर्यटन को सिर्फ टूर एण्ड ट्रेवेल कम्पनियों द्वारा पैकेज टूर को ही वरीयता देते हैं जिसमें सिर्फ लोगों का केवल मनोरंजन का उद्देश्य ही होता न कि एक खोजी दृष्टि। और साथ ही हम देखते हैं कि बौद्ध धर्म में भी भगवान बुद्ध द्वारा घूम-घूम कर बौद्ध देशना की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सोद्देश्यपूर्ण यात्राएँ व्यक्ति के व्यक्तित्व को बड़ा बनाने में सहायक सिद्ध होती है।
    साथ ही महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड़ी को सर्वश्रेष्ठ धर्म माना है और यह घुमक्कड़ धर्म को अनादि सनातन धर्म स्वीकारा है, यह मानते हुए उन्होंने एक ग्रन्थ लिखा जिसका नाम उन्होंने घुमक्कड़ शास्त्र रखा। 168 पृष्ठ की घुमक्कड़ शास्त्र वर्ष 1948 में किताब महल प्रकाशन, से प्रकाशित है। 'घुमक्कड़ शास्त्र' कोई यात्रा का वर्णन या यात्रा वृत्तान्त नहीं है। 'घुमक्कड़ शास्त्र' यात्रा, देशाटन और देश भ्रमण के महत्व को समझाने वाला सैद्धांतिक ग्रंथ है। इस पुस्तक के विषयवस्तु पर प्रकाश डालते हुए स्वयं राहुल जी ने प्रथम संस्करण की भूमिका में लिखा है, घुमक्कड़ी का अंकुर पैदा करना इस शास्त्र का काम नहीं, बल्कि जन्मजात अंकुर की पुष्टि, परिवर्द्धन तथा मार्ग दर्शन इस ग्रंथ का लक्ष्य है। आगे राहुल जी कहते हैं घुमक्कड़ी तपस्या है, सन्यास है, मोही घुमक्कड़ नहीं हो सकता है। परिवार और देश का मोह छोड़ना होगा। देह-सुख, स्वाद का मोह आदि भी नहीं। नदी, जंगल, समुद्र पार करने का साहस आवश्यक है। इन्द्रियों का संयम आवश्यक है। इंद्रिय लोलुप से घुमक्कड़ी संभव नहीं।
    देश-देश के पानी, पथ्य और परम्परा को पचाने की क्षमता चाहिए। भाषा या संकेत करने की शक्ति आवश्यक है, भाषा और भूगोल का ज्ञान आवश्यक है। घुमक्कड़ी के कारण ही राहुल जी ने अनेक भाषाएँ सीखी।
डॉ. रूद्र प्रताप यादव
पूर्व शोध छात्र
बौद्ध अध्ययन विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ई.मेल-rudrapratapyo@gmail.com
  संदर्भ ग्रंथ सूची
•    सांकृत्यायन राहुल, घुमक्कड़ शास्त्र, किताब महल प्रकाशन, 1949
•    सांकृत्यायन राहुल, घुमक्कड़ स्वामी, किताब महल प्रकाशन, 1956
•     सांकृत्यायन राहुल, विश्व की रूपरेखा, किताब महल प्रकाशन, 1941
•     सांकृत्यायन राहुल, बौद्ध-दर्शन, किताब महल प्रकाशन, 1943
•    सांकृत्यायन राहुल, बुद्धचर्या, किताब महल प्रकाशन, 1930
•    सांकृत्यायन राहुल, महामानव बुद्ध, किताब महल प्रकाशन, 1956
•    सांकृत्यायन राहुल, बौद्ध संस्कृति, किताब महल प्रकाशन, 1949
•    सांकृत्यायन राहुल, एशिया के दुर्गम भूखंडों में, किताब महल प्रकाशन, 1956
•    सांकृत्यायन राहुल, महामानव महापण्डित, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995
•    मुले गुणाकर, स्वयंभू महापंडित, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली-1993
•    वापट पी.वी. बौद्ध धर्म के 2500 वर्ष, प्रकाशन विभाग, दिल्ली, 1956

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