Tuesday, December 12, 2023

                                                         राजस्थानी बंधेज

1. प्रस्तावना- 

रंग आकार और ध्वनि ही मानव जीवन में सौन्दर्य के तीन पहलू है। रंग से  शरीर-आत्मा में आनन्द की अनुभूति होती है। भारत वर्ष में प्राचीनकाल से ही रंगाई और छपाई का कार्य होता आ रहा हैं, प्राचीन साहित्य ’महावग्ग’, ’पाणिनी की अष्टाध्यायी’, ’मनुस्मृति’ आदि के उल्लेखों से स्पष्ट है कि उस समय रंगाई कला विकसित थी। ’पेरिप्लस एवं पोप ग्रेगरी द ग्रेट’ भारतीय वस्त्रों के पक्के व चटकीले रंगों का विषेष उल्लेख करते हैं । भारत में वस्त्रों को रंगने के विषेष वानस्पतिक एवं खनिज रंगों एवं उन्हें पक्का करने कि रासायनिक पद्धति विकसित थी, जिससे अन्य देष परिचित न थे इस तरह सर्वप्रथम रंगाई की कला शुरू हुई। इसके कुछ समय बाद बंधेज या बांधनु का कार्य शुरू हुआ जो कि रंगाई की ही एक विधि है।
हस्त षिल्प कलाओं से परिपूर्ण भारत का ही एक रंगीन प्रदेष है-राजस्थान। राजस्थान में हस्तषिल्प कलाओं का इतिहास जितना प्राचीन है, उतना ही रोचक भी है। यहाँ की हस्त षिल्प कलाओं के क्षेत्र में बन्धेज ने अपनी यात्रा के इतिहास में एक से बढ़कर एक अभिनव पृष्ठों की संरचना की और ख्याति एवं समृद्धि हासिल की है।
2. बंधेज से जुड़ी राजस्थानी परम्पराएं-

 राजस्थानी परिवेष में बंधेज को किसी न किसी रूप में समाज के प्रत्येक वर्ग में त्यौहारों पर्वांे, ऋतुओं या समारोहोें में बेहद खूबसूरती के साथ सजाया-संवारा तथा सराहा जाता है। राजस्थानी लोकगीतों में भी बंधजे का अपना महत्व हैं। ’’म्हाने फागणियों मंगा दे म्हारा रसिया’’ या ’’फागुण आयो, फागणियों रंगा दे रसिया’’ जैसे होली के गीत हो या ’’बन्ना रे बागाँ में झूला घाल्या’’ जैसे शादी ब्याह में गाये जाने वाले लोकगीत हों, सभी में बंधेज का रंग दिखलाई पड़ता है । जहंांॅ सदियों से मानव संस्कृति के साथ जुड़ी बंधेज मानव जाति के जनमानस में रची बसी है। वही भारत वर्ष के देवी-देवता भी इससे अछूते नहीं रह सके। यहाँ पार्वती, लक्ष्मी, कालका, दुर्गा, महामाया, सती माता आदि से लेकर शीतला माता तक की मनौती के रूप में अनेकों वर्ग तथा जातियों द्वारा अपनी-अपनी आस्था के प्रतीक देवी-देवताओं की प्रतिमा पर बन्धेज या ओढनी चढाई जाती है।
3. बंधेज का उद्भव-

 बंधेज शब्द से अर्थ स्पष्ट है- संस्कृत में ’’बन्धिनी’’ द्वारा उद्धृत बंधेज यानी बांधने की प्रक्रिया को बंधेज कहा जाता है अर्थात कपड़े को व्यवस्थित रूप से मोड़ कर उस पर उकेरी गई आकृति या नमूने के अनुरूप, धागे से कसकर गाँठे लगाई जाती हैं, उसके बाद गाँठ-युक्त बांधित भाग को रंगा जाता है।
200 ईसा पूर्व अनुमानतया सर्वप्रथम मोहन जोदड़ो में बंधेज की जानकारी मिली है। छठी व सातवीं ए.डी. में अजन्ता-एलोरा की कन्दराओं में चित्रित कुछ स्त्री-वर्ग को बंधेज परिधानों में दर्षाया गया हैं। 14 वीं शताब्दी में प्राप्त कल्पसूत्र नामक जैन श्रुतिग्रन्थ में चित्रित भगवान महावीर के जन्मकाल के समय उनके अंगवस्त्र पूर्णतया बंधेज द्वारा परिच्छन ह ै।    16 वीं शताब्दी के द्वितीय चरण में सुप्रसिद्ध कवि जायसी ने अपने प्रमुख ग्रन्थ ’’पद्मावत’’ में पोमचा के बंधेज का वर्णन किया था वह आज भी अमर है।
राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर तथा समीपस्थ पाकिस्तानी सिन्ध इलाके में सर्वप्रथम अत्यन्त साधारण व मोटे कपड़े पर सरल, साधारण आकृति बाँधी जाती थी।
राजस्थान का जयुपर अपने गौरवषाली, अतीत तथा सांस्कृतिक विरासत हेतु अव्वल दर्जे पर है, यहाँ की बंधेज ने विष्व के पटल पर अपनी ख्याति और समृद्धि हासिल की है, जो बंधई व रंगाई जयपुर में होती है, उसकी अन्य कहीं भी सानी नहीं मिलती आरम्भ कला से ही जयपुर राजपूतों की छत्रछाया में पला बढ़ा है। जयपुर के सिटी पैलेस म्यूजियम में संगृहित प्राचीन राजघरानों के परिधानों के कुछ नायाब बँधेज नमूनों की झलक देखने को मिलती है। जिसके अन्तर्गत रंग बिरंगे लहरिये, राजपूती शान-षौकत, शैली के अनुरूप मोठड़े, चुनर की भाँत के साफे, स्त्रियों के लहँगे, घाघरे, कुर्ते, काँचली आदि सभी बंधेज युक्त हैं।
    
बंधेज की ओढ़णियाँ
जयपुर बंधेज में ओढनी के बाहरी किनारों पर विषेष ध्यान दिया जाता था तथा कहीं-कहीं उन्हें सुनहरी आभायुक्त रंगों द्वारा रंगा जाता था। यह परम्परा आज भी जीवन्त है। यहां उच्च स्तरीय वस्त्र जैसे रेषम, षिफॅान, जार्जेट आदि में बंधेज खूब प्रचलित है, जिनमें कहीं-कहीं विषेष रूप से नृत्यांगनाएं, मोर, पक्षी आदि की आकृतियां बंाधी जाती है।
4. बंधेज रंगाई की प्रक्रिया- 

जयपुर में सभी स्थानों पर कोई निर्धारित बंधेज प्रक्रिया प्रणाली नहीं हैं। गाँठे अवष्य सभी स्थानों पर एक जैसे ही लगाई जाती है। बंधेज कला को मुख्यतया चार भागों में बांटा गया हैं-

1.    लिकाई या लिपाई - इसके अन्तर्गत श्वेत वस्त्र पर मनचाही आकृति बनाई जाती है।

2.    बंधई का बंधेज - सम्पूर्ण बंधेज कला की केन्द्र बिन्दु ही बंधा है। जिसमें लिपाई द्वारा उकेरी गई आकृति के अनुरूप बंाधी गई गांठों का वह बिन्दु है, जिसका रहस्य बंधेज के अंतिम चरण में खोली गई गांठों के द्वारा ही खुलता है।


3.    टिपाई - उकेरी गई रंगीन आकृति पर बांधी गई गांठों के इर्द-गिर्द लगे अंवाछनीय रंगों की सफाई।

4.    रंगाई - कपड़े पर उकेरे गए अनुकृतियों पर विभिन्न रंगों की योजना के अनुरूप ही कपड़े के अलग-अलग हिस्सों को एक या एक से अधिक बार रंगीन घोल में डुबोया तथा धूप में सुखाया जाता है।

बंधेज के अन्तर्गत प्रमुख रूप से उपयोगी कुछ विषिष्ट रंगांे की अपनी अलग ही पहचान बन गई है। ग्रामीण परम्परा के अन्तर्गत मुख्यतया लाल और पीला रंग प्रमुख हैं, इसकी जमीन, पीली व किनारी लाल होती हैं । मध्यभाग में तथा चारों कोनों पर चार लाल रंग के गोले बने होते हैं तथा इस सम्पूर्ण आकृति के अंतर्गत श्वेत मोती के रूप में अलौकिक छटा बिखेरती है।

राजस्थान में बंधेज के परिधान का क्षेत्र काफी विस्तृत है जिसमें ओढनी, चूनर, सलवार, दुपट्टा, लहंगे, घाघरे, कुर्ती, कांचली, स्कर्ट, फ्राक, स्कार्फ से लेकर कुषन-कंवर, लूंगी, गिलाफ, गर्म ऊनी शालें पुरूषो के साफे तथा अब तो जयपुरी रजाईयाँ थी बंधेज में बनती हैं।

5. निष्कर्ष-

 आधुनिक युग के परिधान क्षेत्र में बंधेज सृजन का यह विस्तार निष्चय ही आष्चर्यजनक उपलब्धि है। सदियों से चले आ रहे बंधेज के इस व्यवसाय के विषय में जितना कुछ कहा जाए या लिखा जाए कम है और भी है कि इसका वास्तविक इतिहास अभी भी अप्राप्त ही है। बंधेज आज सम्पूर्ण विष्व में छायी हुई है। बंधेज व्यवसाय के रूप में स्वरोजगार द्वारा जीवकोपार्जन का जहाँ सषक्त माध्यम है वहीं हस्तषिल्प कला क्षेत्र में विकसित हमारी मूल्यवान परम्परागत जीवन शैली तथा जन आस्थाओं से जुड़ी मानव की संस्कृति की अमूल्य विरासत है। SSM Research Journal


संदर्भ ग्रंथ सूची

1.    माथुर कमलेश     हस्तषिल्प कला के विवध आयाम, जयपुर, 1997 पृ.सं. 26
2.    कोठारी गुलाब     राजस्थान की बहुरंगी वस्त्र परम्परा, जयपुर, 1998 पृ.सं. 46
3.    भगत आशा     राजस्थान, गुजरात एवं मध्यप्रदेष की छपाई कला का सर्वेक्षण, जयपुर, 1995 पृ.सं. 35
4.    कोठारी गुलाब     राजस्थान की ग्रामीण कलाएं एवं कलाकार, जयपुर, 1997   पृ.सं. 15