Saturday, April 2, 2022

बाल मनोविज्ञान और आपकी कुंठाएँ


             विषय पढ़ने से पूर्व निवेदन
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विषय बहुत ही संवेदनशील और गंभीर है। संवेदनशील इसलिए की हम अक्सर बालक के मन,मस्तिष्क और उसकी भवनाओं को समझना तो दूर बालक के निजी विचारों पर तनिक भी ध्यान नहीं देते।
    बस एक बात पर ध्यान देते हैं - जो कुछ हम अपने जीवन में विकास नहीं कर पाए या जो पद प्रतिष्ठा हम प्राप्त नहीं कर पाए उसको प्राप्त करने हेतु हम अपने बच्चों के मानस में वो विचार बाल्यकाल से ही  प्रत्यारोपित करना प्रारंभ कर देते हैं।
    या फिर हम अपने रिस्तेदारों ,मित्रों के बच्चों को देखते हैं तो ये अवधारणा प्रत्यक्ष या परोक्ष निर्मित कर लेते हैं की मेरी संतान इन सब बच्चों को पछाड़ कर आगे निकलनी चाहिए।
हम बच्चों को लोरियों में या दुलारते हुए अपनी कुंठाओं को बड़ी ही मधुर गीतात्मक शैली में उसके कानों में पोषित करने लगते हैं।
आखिर हर माँ -बाप अपने बच्चों को डॉक्टर ही क्यों बनाना चाहता है ?
राजा ही क्यों बनाना चाहता है ?
बच्चा जैसे ही इस संसार में अपनी आँख खोलता है हम मोबाइल स्क्रीन को प्रस्तुत कर देते हैं। विडिओ कॉल से वह नवजात शिशु घंटों सामना करता है। हमे न तो शिशु की कोमल आँखों की परवाह होती है और न ही उस मोबाइल से उत्सर्जित घातक रेडिएशन की।
जब शिशु थोड़ा बड़ा होता है, स्वाभाविक रुदन करता है तो हम एक बड़ी स्क्रीन वाले  मोबाइल  से उसकी पक्की दोस्ती करवा देते हैं। भविष्य में वह शिशु उस मोबाइल का नशेड़ी हो जाता है।
जैसे ही बच्चा तीन वर्ष का होता है हम उसे एक ऐसी प्रतिस्पर्धा में झोंक देते हैं जिसकी कल्पना उस बच्चे न की थी। शिक्षित करने के बहाने सबसे पहले हम उस बच्चे के बचपन को छीन लेते हैं। इसके पीछे जो परोक्ष कारण है एकल परिवार में जीने की प्रवर्ती का विकास।
मेरे प्रत्येक माता पिता से कुछेक मूल प्रश्न हैं --
1 क्या आपको गीत संगीत पसंद नहीं है ?
2 क्या आप किसी पेंटिंग या किसी भवन के निर्माण की भव्यता को देखकर उसकी भूरी भूरी प्रशंसा नहीं करते ?
3 क्या आप बढ़िया भोजन बनाने वाले की बड़ाई करने से परहेज करते हैं ?
4 क्या आप किसी बढ़िया दर्जी की प्रशंसा नहीं करते
5 क्या आपको बढ़िया शिक्षकों की तलाश नहीं रहती ?
मित्रो ! ये तो बस उदाहरण भर हैं। कहने का आशय ये हैं की एक संसार मैं प्रत्येक कार्य स्वयं में अति विशिष्ट है।
अगर हम अपने बच्चे को सच्चा प्रेम करते हैं तो फिर हमें उसकी निजी जीवन में प्रारम्भ से ही दखल देना बंद करना होगा।
हम बच्चे के लिए  श्रेष्ट शिक्षा का प्रबंध करें। उसे नैतिक रूप से चरित्रवान बनाने हेतु श्रेष्ट गुरुजनों के सानिध्य में ले जाएँ। उसे आत्मिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाने का पूरा उद्योग करें ताकि भविष्य में वह बालक किसी भी बड़ी से बड़ी मुसीबत का सामना पुरे विवेक से करने केन प्रवीण हो सके।
बावजूद इसके वह जो भी अपने मन,इच्छा और आत्मा से जिस वृति को अपनाना चाहे उसे रोका न जाये। हम अपनी दमित कुंठाओं का शिकार बच्चे को न बनायें।
बच्चे को भारतीय सत्साहित्य पढ़ाया जाये।
संक्षेप में , सभी अभिभावकों से निवेदन है वह बालक जिसे आपने अपनी संपत्ति मान लिया है वास्तव में आप भ्रमित हैं। आप तो केवल एक माध्यम है। वह एक स्वतंत्र आत्मा है। उसका अपना एक वजूद है। सोचिये आप भी तो अपने माता पिता के माध्यम से इस संसार मैं आये थे। नई पीढ़ी को कोसने या अपमानित करने से पूर्व हमें चाहिए की हम उसको संस्कारित करें। यदि आपने बच्चे को संस्कारित कर दिया तो वह श्रेष्ठ स्वयं ही हो जायेगा।  भौतिकता में फंस कर पति पत्नी दोनों नौकरी पर चले जाते हैं। बच्चों को मैड या आया पलटी है। वह दिन भर क्या करता है उसकी आपको कोई खबर नहीं होती। बस धन के आधार पर आप उसे भव्य भवनों वाले स्कूलों में दाखिल करवा कर इतिश्री कर लेते हैं।
आदरणीय , बाल मनोविज्ञान को समझिये और उसे एक बेहतर इन्सान बनाने की प्रक्रिया को जानिए। धन से संस्कार नहीं ख़रीदे जा सकते। मटेलिस्टिक मत बनिए वर्ना वही होगा जो हो रहा है। आपके लिए वृद्धाश्रम तैयार है क्योंकि आपने अपने बच्चे को न तो अपने प्रति ,न अपने परिवार के प्रति ,न अपने देश के प्रति उचित परिचय करवाया ,परिणामतः बच्चा विदेश में जाकर बस गया। दो नुकसान एक साथ होते है।
आपने उस बच्चे को असामाजिक बनाकर अपना बुढ़ापा ख़राब कर लिया।  दूसरा ,जिस देश में पढ़ लिखकर वह ज्ञानी बना उसी देश को छोड़कर चला गया।
सोचिये आपकी निजी कुंठाओं के दुष्परिणामों को।
इस विषय मैं यदि आप मुझसे विस्तृत चर्चा करना चाहते हैं तो मुझे एक मेल पर लिखें -
professor.kbsingh@gmail.com 

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