Wednesday, April 6, 2022

अमेरिकी और भारतीय सिनेमा एवं साहित्य में नारीवादी विचारधारा

विषय पढ़ने से पूर्व निवेदन
यदि आपको मेरा आर्टिकल पसंद आये तो प्लीज  इस ब्लॉग को फॉलो जरूर कीजिए और इस ब्लॉग को विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्म जैसे व्हाट्सप्प ,फेसबुक ,इंस्टाग्राम ,ट्विटर आदि पर शेयर जरूर कीजिएगा । आपके दाहिनी तरफ फॉलो लिखा है ,उसे क्लिक कर दीजिये। आभार। .
  
किसी भी देश की प्रगति का मूल्यांकन उस देश की स्त्रियों की स्थिति से लगाया जा सकता है। देश के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य में नारी को रखकर देखा जाए तो कुछ अपवादों को छोड़कर हम एक ही बिन्दु पर पहुँचेंगे कि पुरुषों ने सदियों तक उसे दोयम दर्जे का प्राणी बनाकर रखा। दास बनाया। साम्राज्यवादी व्यवस्था में स्त्री को जबरन पत्नी बनाकर रखा गया। कहीं उसे तरह-तरह के प्रलोभन देकर भोग और विलासिता की वस्तु बनाकर शोषण किया। जहाँगीर का 48 वर्ष का बेटा तख्ते सल्तनत पर बैठा तो मुसाहिबों से कहने लगा, ‘मैं अपने बाप के सामने तीन बरस तक दुश्मनों से लड़ा हूँ और हर तरफ फौजकशी की है अब मेरा इरादा मुल्कगिरी करने का नहीं है। मैं चाहता हूँ कि बाकी उम्र ऐशो-इशरत में बसर करूँ। मशहूर है कि फिर उसने पंद्रह हजार औरतें अपने महल में जमा कीं और एक शहर औरतों का बसाया जिसमें मर्द न थ। जहाँ कोई हसीन औरत सुनता, किसी न किसी तरह अपने महल में मंगवा लेता’।
इतिहास के पन्नों को पलटने पर भारतीय नारी की स्थिति और दशा एक दयनीय, निर्बल, पुरुषों पर आश्रित दिखाई पड़ती है । एक साधारण सी बात यह है कि जिस समाज में जितना अधिक शोषण व उत्पीड़न होगा उस समाज की परतों में आंदोलन की चिंगारियाँ अंदर ही अंदर सुलगती हैं और एक दिन ज्वालामुखी की तरह फटती हैं। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महादेव गोविन्द रनाडे, महात्मा ज्योतिबाफूले, महात्मा गाँधी जैसे अनेक लोगों ने नारी जगत के उद्धार के लिए और उनके व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए उन जातिगत व धार्मिक बंधनों को समाप्त करने के लिए संघर्ष किया, जिससे वे पुरुष समाज के अत्याचारों और धार्मिक अंधविश्वासों से संघर्ष कर सकें। ये सब लोग कहीं न कहीं नारी सशक्तिकरण को बल प्रदान करने में सहायक बनें।
    पुरुष प्रधान समाज में नारी की स्थिति को बताने का प्रयास हिंदी साहित्य में भी होता रहा। आठवें दशक में महिला लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं में स्त्री विमर्श को उभारने का प्रयास किया। ‘उषा प्रियंवदा’, ‘मन्नू भंडारी’, ‘मृदुला गर्ग’, ‘कृष्णा अग्निहोत्री’, ‘राजी सेठ’, ‘प्रभा खेतान’ ने अपनी रचनाओं से पाठकों का ध्यान खींचा। ‘चित्र मुद्गल’ ने अपने उपन्यास ‘एक जमीन अपनी’ में लिखा है – ‘औरत बोनसाई का पौधा नहीं है - जब जी चाहे उसकी जड़ें काटकर उसे गमले में वापिस रोप दिया। वह बौना बनाये रखने की इस साजिश को अस्वीकार करती है’।
        ‘मैत्रेयी पुष्पा’ लिखती है कि – ‘विभिन्न मानसिकता के इस दुमुंहे समाज में आज की नारी मात्र वस्तु, मात्र संपत्ति, विनिमय की चीज है’। ‘जयशंकर प्रसाद का नाटक ध्रुवस्वामिनी’ हो या फिर ‘हजारीप्रसाद जी का उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा’ या ‘मुझे चाँद चाहिए’ (सुरेन्द्र वर्मा), ‘वसंती’ (भीष्म साहनी), ‘अर्धनारीश्वर’ (विष्णु प्रभाकर), ‘बेतवा बहती रही’ (मैत्रेयी पुष्पा), ‘थकी हुई सुबह’ (राम दरश मिश्र), ‘कीर्ति कथा’ (कश्मीरी लाल) हिंदी साहित्य नारी को गरिमा प्रदान करता है, उसे पवित्र बनाता है एवं पूज्य मानता है।
    ‘सिमोन द बोउआ’ की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ में नारीवाद पर गम्भीर विचार प्रकट किया गया है और विषय को एक नया कोण सोचने के लिए दिया है। वह कहती हैं, ‘नारीवाद’ से मेरा तात्पर्य यह है कि कुछ खास स्त्री मुद्दों पर वर्ग संघर्ष से हटकर स्वतंत्र रूप से संघर्ष करना है। मैं आज भी अपने इसी विचार पर कायम हूँ। मेरी परिभाषा के अनुसार ‘स्त्रियाँ और वे पुरुष भी नारीवादी हैं, जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था में औरतों की स्थिति में परिवर्तन के लिए संघर्षरत हैं। यह सच है कि पूरे समाज की मुक्ति के बर्गर स्त्रियों की पूर्ण मुक्ति संभव नहीं है, लेकिन फिर भी नारीवाद इस लक्ष्य के लिए आज और अभी संघर्षरत हैं। इस अर्थ में मैं नारीवादी हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि औरत की मुक्ति के लिए हमें आज और अभी संघर्ष करना चाहिए, इससे पहले की समाजवाद का हमारा स्वप्न पूरा हो। ‘द सेकण्ड सेक्स’ लिखे जाने के तेईस वर्ष बाद अपने को नारीवादी घोषित करने के मूल कारक के रूप में स्वीकार करती है।‘
अमेरिका में नारीवाद की पहली लहर सिनेका फाल्स सम्मेलन के तहत उठी। यह औरतों के अधिकारों से जुड़ा पहला सम्मेलन था जो कि 19-20 जुलाई 1948 को न्यूयार्क में आयोजित हुआ था। सम्मेलन का विशेष मुद्दा यह था कि 1840 में जब एलिजाबेथ केडी लुक्रिटिया मोट से विश्व दास मुक्ति सम्मेलन में मिली तब उस सम्मेलन में मोट और अन्य अमेरिकी औरतों को बैठने के लिए बस इसलिए मना किया गया था क्योंकि वे सब औरतें थीं। इसके बाद केडी और मोट ने नारी की स्थिति को बताने के लिए एक सम्मेलन बुलाया। 300 से अधिक औरतें और पुरुषों ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया। ‘भावनाओं और संकल्पों की घोषणा’ नामक निष्कर्ष पर लगभग 68 औरतों और 32 पुरुषों ने अपने हस्ताक्षर किया।
    अमेरिका में यह लहर दूसरी बार 1968 में आयी जब बेटी फ्रीडन ने ‘द फेमिनाइन मिस्टीक’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें इन्होंने बताया कि सिनेमा किस तरह नारी के चरित्र को दिखाता है। केवल घरेलू कार्यों में लगकर महिलाएँ अपनी क्षमताओं और हुनर को दबाती जा रही हैं।
तीसरी लहर 1990 में तब आयी जब यूनाइटेड स्टेट के उच्चतम न्यायालय के लिए नामांकित क्लारेंस थामस पर अनीता हिल ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। न्यायालय में हुए विवाद के बाद सारे मत थामस के पक्ष में गये। 1992 में अनीता के द्वारा उठाये गये इस मुद्दे पर अमेरिकन नारीवादी महिला ‘रिबैका’ ने एक लेख एम एस मैग्जीन में प्रकाशित किया जिसका नाम था – ‘तीसरी लहर की शुरुआत’। जिसमें उन्होंने कहा कि मैं नारीवाद की उत्तरधारा नहीं हूँ बल्कि तीसरी लहर हूँ।
भारत में भी नारीवाद के इतिहास को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है। पहला चरण 19वीं सदी के मध्य से शुरु हुआ जब यूरोपीय पुरुष संघों ने सामाजिक बुराई सती के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। दूसरा चरण 1915 से जब महात्मा गाँधी ने भारत की आजादी के लिए भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं को शामिल किया और धीरे धीरे स्वतंत्र महिला संगठन उभरकर सामने आये। तीसरा चरण भारत की आजादी के बाद शुरु हुआ जो कि विवाह के बाद एक महिला के साथ किये जाने वाले व्यवहार पर केंद्रित था।
    औरत की वास्वविक स्थिति को बताने और सुधारने के लिए कई विचारधाराएं सामने आयीं। ‘मार्क्सवादी विचारधारा’ - मार्क्स का समाजवादी फलसफा औरत की समाज में आर्थिक-सामाजिक स्थिति, शोषण के ढंग और पूंजीपतियों की नीतियों को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अभिनीत करता है। मार्क्स की अवधारणा को एंजेल्स ने एक अलग तरह से विचार करने के लिए सुझाव दिया कि महिलाओं की दासता को जीव विज्ञान अथवा जैविक आधार पर जानने के बजाय इसे इतिहास में खोजना होगा। इसमें कोई मत नहीं है कि किसी भी प्रकार की समस्या के विकास में एक प्रक्रिया निरन्तर कार्य करती रहती है। नारी की विभिन्न समस्याओं को जानने के लिए इतिहास के विकास की प्रक्रिया को, जो विभिन्न घटनाओं से जुड़ी है, जाने बगैर हम किसी वैज्ञानिक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते हैं।
‘उदारवादी नारीवादी विचारधारा’ - बुद्धिजीवियों और विचारकों का एक ऐसा वर्ग सामने आया, जो समाज की विभिन्न समस्याओं पर उदारतापूर्वक विचार करने लगा। नारी समाज में व्याप्त समस्याओं पर, जो मूलतः लिंग भेद, जैविक आधार और असमानता पर खड़ी थी, उदारतापूर्वक नए ढंग से विचार किया जाने लगा। नारी की अस्मिता जो सदियों से अंधेरी गुफाओं में पड़ी थी, उन्हें पहचान मिली। नारी को समाज में सम्मानपूर्वक स्थान देने का प्रयास किया जाने लगा| ‘रेडिकल नारीवादी विचारधारा’ - रेडिकल नारीवादी विचारधारा स्त्री देह को लेकर जो विभिन्न प्रकार से शोषण का शिकार बनती है, उसका विरोध करती है, जैसे बलात्कार वेश्यावृत्ति आदि।
सीमा दास रेडिकल नारीवाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखती हैं: ‘दरअसल ‘रेडिकल नारीवाद ‘में निहित ‘रेडिकल’ शब्द का यह अर्थ ‘अतिवादी’ या ‘हठधर्मी’ कतई नहीं है। इसकी उत्पत्ति लेटिन शब्द से हुई है। रेडिकल नारीवादी सिद्धान्त में पुरुष द्वारा महिलाओं के उत्पीड़न को समाज में व्याप्त सब प्रकार के सत्ता-सम्बन्धों की गैरबराबरी की जड़ में देखा जाता है’।
    हिंदी फिल्मों में स्त्री की छवि मनोरंजन और दिखावे भर तक सीमित न होने के बावजूद जहाँ भी मौका मिला, वह उसने अपनी ताकत, अपने व्यक्तित्त्व का जलवा दिखाते हुए धीरे धीरे ही सही अपनी यात्रा जारी रखी, इस यात्रा में उसे हीनता का भी सामना करना पड़ा और कभी उसने असीम ऊचाइयों को भी देखा | ‘गुणसुन्दरी’ (1934) में परिवार को बचाने वाली एक गुणी कन्या, ‘हंटरवाली’ (1935) में गरीबो की रक्षा, दोषियों को सजा और स्त्री का रॉबिनहुड रूप, ‘मदर इंडिया’ (1957) में पति के छोड़ जाने के बाद परिवार और बच्चों को संभालती राधा, ‘गाइड’ (1965) में रोजी का राजू गाइड के साथ सम्बन्ध बनाकर अपनी आजादी को खोजना, ‘भूमिका’ (1976) एक औरत का ज़िन्दगी के हर मोड़ पर इस्तेमाल, ‘घर’ (1978) नवविवाहित की ज़िन्दगी में तूफ़ान आना जब पति के समक्ष उसकी पत्नी पर गैंग रेप  होता है, ‘अर्थ’ (1982) में एक औरत के स्वाभिमान की कहानी, ‘मंडी’ (1983) वेश्याओं की ओर देखने का समाज का दोगला नज़रिया, ‘खून भरी मांग’ (1988) में बदला लेती नायिका, ‘दामिनी’ (1993) में एक औरत के सिद्धांत और उसके परिवार की बीच की लड़ाई, ‘अस्तित्व’ (2000) यौन नैतिकताओं पर प्रश्न उठाती फिल्म, ‘क्या कहना’ (2000) कुँवारी माँ का अपने बच्चे को जन्म देने का साहस सभी फिल्मों में  नारी के अनेक रूप देखने को मिले |
‘एडम्स रिब’ (1949), ‘आल अबाउट ईव’ (1950), ‘आंटी ममे’ (1958), ‘टू किल अ मॉकिंग बर्ड’ (1962), ‘स्टार्स वार्स’ (1977) ‘एलियन’ (1979), ‘साइलेंस ऑफ़ द लैम्ब’ (1991), ‘हैवेन्ली क्रैचर्स’ (1994), ‘नाउ एंड देन’ (1995), ‘फॉक्स फायर’ (1996), ‘गर्ल इंट्रप्टेड’ (1999), ‘फाइट क्लब’ (2000), ‘मीन गर्ल’ (2004), ‘द वार्ड’ (2010), हन्ना (2011) ,जैसे अमेरिकन फिल्मों में भी औरत की छवि को धीरे-धीरे बदलते हुए देखा गया, जिस तरह समाज की मानसिकता, सोच बदलकर आधुनिक हुई उसी तरह स्त्री की छवि का दायरा भी बदलता गया |
    नारी के शरीर के साथ-साथ उसकी भावनाओं को चोटिल करना, उनके साथ खेलना पुरुष के लिए हर समय एक मनोरंजन रहा है। जहाँ एक तरफ औरत शारीरिक उत्पीड़न से जूझती रही वहीं दूसरी तरफ उसके साथ किए गए भावनात्मक खिलवाड़ ने भी उसके मन मस्तिष्क को तोड़ा। भारतीय और अमेरिकन कैमरे ने नारी की स्थिति को देखा और उसे अपने अंदर उतारने का प्रयास किया। इन दोनों देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि और परिवेश में विभिन्नन्ता होने पर ये फिल्में नारी सशक्तिकरण को सामने लाती हैं      |डॉ. स्वाति शर्मा  अग्रवाल पीजी कॉलेज जयपुर, राजस्थान 


Saturday, April 2, 2022

बाल मनोविज्ञान और आपकी कुंठाएँ


             विषय पढ़ने से पूर्व निवेदन
यदि आपको मेरा आर्टिकल पसंद आये तो प्लीज मेरे इस ब्लॉग को फॉलो जरूर कीजिए और इस ब्लॉग को विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्म जैसे व्हाट्सप्प ,फेसबुक ,इंस्टाग्राम ,ट्विटर आदि पर शेयर जरूर कीजिएगा । आपके दाहिनी तरफ फॉलो लिखा है ,उसे क्लिक कर दीजिये। आभार। .
  

विषय बहुत ही संवेदनशील और गंभीर है। संवेदनशील इसलिए की हम अक्सर बालक के मन,मस्तिष्क और उसकी भवनाओं को समझना तो दूर बालक के निजी विचारों पर तनिक भी ध्यान नहीं देते।
    बस एक बात पर ध्यान देते हैं - जो कुछ हम अपने जीवन में विकास नहीं कर पाए या जो पद प्रतिष्ठा हम प्राप्त नहीं कर पाए उसको प्राप्त करने हेतु हम अपने बच्चों के मानस में वो विचार बाल्यकाल से ही  प्रत्यारोपित करना प्रारंभ कर देते हैं।
    या फिर हम अपने रिस्तेदारों ,मित्रों के बच्चों को देखते हैं तो ये अवधारणा प्रत्यक्ष या परोक्ष निर्मित कर लेते हैं की मेरी संतान इन सब बच्चों को पछाड़ कर आगे निकलनी चाहिए।
हम बच्चों को लोरियों में या दुलारते हुए अपनी कुंठाओं को बड़ी ही मधुर गीतात्मक शैली में उसके कानों में पोषित करने लगते हैं।
आखिर हर माँ -बाप अपने बच्चों को डॉक्टर ही क्यों बनाना चाहता है ?
राजा ही क्यों बनाना चाहता है ?
बच्चा जैसे ही इस संसार में अपनी आँख खोलता है हम मोबाइल स्क्रीन को प्रस्तुत कर देते हैं। विडिओ कॉल से वह नवजात शिशु घंटों सामना करता है। हमे न तो शिशु की कोमल आँखों की परवाह होती है और न ही उस मोबाइल से उत्सर्जित घातक रेडिएशन की।
जब शिशु थोड़ा बड़ा होता है, स्वाभाविक रुदन करता है तो हम एक बड़ी स्क्रीन वाले  मोबाइल  से उसकी पक्की दोस्ती करवा देते हैं। भविष्य में वह शिशु उस मोबाइल का नशेड़ी हो जाता है।
जैसे ही बच्चा तीन वर्ष का होता है हम उसे एक ऐसी प्रतिस्पर्धा में झोंक देते हैं जिसकी कल्पना उस बच्चे न की थी। शिक्षित करने के बहाने सबसे पहले हम उस बच्चे के बचपन को छीन लेते हैं। इसके पीछे जो परोक्ष कारण है एकल परिवार में जीने की प्रवर्ती का विकास।
मेरे प्रत्येक माता पिता से कुछेक मूल प्रश्न हैं --
1 क्या आपको गीत संगीत पसंद नहीं है ?
2 क्या आप किसी पेंटिंग या किसी भवन के निर्माण की भव्यता को देखकर उसकी भूरी भूरी प्रशंसा नहीं करते ?
3 क्या आप बढ़िया भोजन बनाने वाले की बड़ाई करने से परहेज करते हैं ?
4 क्या आप किसी बढ़िया दर्जी की प्रशंसा नहीं करते
5 क्या आपको बढ़िया शिक्षकों की तलाश नहीं रहती ?
मित्रो ! ये तो बस उदाहरण भर हैं। कहने का आशय ये हैं की एक संसार मैं प्रत्येक कार्य स्वयं में अति विशिष्ट है।
अगर हम अपने बच्चे को सच्चा प्रेम करते हैं तो फिर हमें उसकी निजी जीवन में प्रारम्भ से ही दखल देना बंद करना होगा।
हम बच्चे के लिए  श्रेष्ट शिक्षा का प्रबंध करें। उसे नैतिक रूप से चरित्रवान बनाने हेतु श्रेष्ट गुरुजनों के सानिध्य में ले जाएँ। उसे आत्मिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाने का पूरा उद्योग करें ताकि भविष्य में वह बालक किसी भी बड़ी से बड़ी मुसीबत का सामना पुरे विवेक से करने केन प्रवीण हो सके।
बावजूद इसके वह जो भी अपने मन,इच्छा और आत्मा से जिस वृति को अपनाना चाहे उसे रोका न जाये। हम अपनी दमित कुंठाओं का शिकार बच्चे को न बनायें।
बच्चे को भारतीय सत्साहित्य पढ़ाया जाये।
संक्षेप में , सभी अभिभावकों से निवेदन है वह बालक जिसे आपने अपनी संपत्ति मान लिया है वास्तव में आप भ्रमित हैं। आप तो केवल एक माध्यम है। वह एक स्वतंत्र आत्मा है। उसका अपना एक वजूद है। सोचिये आप भी तो अपने माता पिता के माध्यम से इस संसार मैं आये थे। नई पीढ़ी को कोसने या अपमानित करने से पूर्व हमें चाहिए की हम उसको संस्कारित करें। यदि आपने बच्चे को संस्कारित कर दिया तो वह श्रेष्ठ स्वयं ही हो जायेगा।  भौतिकता में फंस कर पति पत्नी दोनों नौकरी पर चले जाते हैं। बच्चों को मैड या आया पलटी है। वह दिन भर क्या करता है उसकी आपको कोई खबर नहीं होती। बस धन के आधार पर आप उसे भव्य भवनों वाले स्कूलों में दाखिल करवा कर इतिश्री कर लेते हैं।
आदरणीय , बाल मनोविज्ञान को समझिये और उसे एक बेहतर इन्सान बनाने की प्रक्रिया को जानिए। धन से संस्कार नहीं ख़रीदे जा सकते। मटेलिस्टिक मत बनिए वर्ना वही होगा जो हो रहा है। आपके लिए वृद्धाश्रम तैयार है क्योंकि आपने अपने बच्चे को न तो अपने प्रति ,न अपने परिवार के प्रति ,न अपने देश के प्रति उचित परिचय करवाया ,परिणामतः बच्चा विदेश में जाकर बस गया। दो नुकसान एक साथ होते है।
आपने उस बच्चे को असामाजिक बनाकर अपना बुढ़ापा ख़राब कर लिया।  दूसरा ,जिस देश में पढ़ लिखकर वह ज्ञानी बना उसी देश को छोड़कर चला गया।
सोचिये आपकी निजी कुंठाओं के दुष्परिणामों को।
इस विषय मैं यदि आप मुझसे विस्तृत चर्चा करना चाहते हैं तो मुझे एक मेल पर लिखें -
professor.kbsingh@gmail.com 

Child Psychology and Your Frustrations

 

 Request before reading the topic 

 If you like my article then please follow my blog and share it with social media platforms like Whatsapp,Face book. Follow is written on your right side, click it. Thank You. ,

             The subject is very sensitive and serious. Sensitive because we often do not pay any attention to the child's personal thoughts, far from understanding the child's mind, brain and his feelings. Let us pay attention to just one thing - whatever we could not develop in our life or to achieve the status which we could not achieve, we start implanting those thoughts in the mind of our children from childhood itself. Or if we look at the children of our relatives, friends, then directly or indirectly we create this concept that my child should overtake all these children and go ahead. We begin to feed our frustrations into his ears in a very melodious lyrical style while lulling or caressing the child. Why does every parent want their children to be doctors? Why does he want to be the king? We present the mobile screen as soon as the child opens his eyes to this world. That newborn baby faces hours through video calls. We neither care about the soft eyes of the baby nor the deadly radiation emitted from that mobile. When the baby is a little older, weeps naturally, then we make a good friendship with a mobile with a big screen. In future that child becomes addicted to that mobile. As soon as the child is three years old, we throw him into a competition that the child had not imagined. First of all, on the pretext of educating, we take away the childhood of that child. The indirect reason behind this is the development of tendency to live in nuclear family. I have a few basic questions for every parent - 1 Don't like lyric music? 2 Do you not appreciate the grandeur of a painting or construction of a building? 3 Do you avoid praising the one who makes the fine food? 4 Don't you admire a fine tailor 5 Are you not looking for good teachers? Friends ! These are just examples. It is meant to say that in a world every action is very special in itself. If we truly love our child, then we have to stop interfering in his personal life from the very beginning. We make arrangements for the best education for the child. To make him morally characterful, take him in the company of the best teachers. Do the whole industry of making him strong spiritually and physically so that in future that child can be able to face any biggest trouble with full prudence. Despite this, whatever attitude he wants to adopt with his mind, will and soul, should not be stopped. Let us not make the child a victim of our repressed frustrations. Indian literature should be taught to the child. In short, it is a request to all the parents that the child whom you have taken as your property is really you are confused. You are only a medium. He is a free spirit. He has an existence of his own. Imagine that you too had come to this world through your parents. Before cursing or humiliating the new generation, we should cultivate it. If you have cultivated the child, then he will become the best himself. Trapped in materialism, both husband and wife go to work. Children have a mad or aaya turn. You have no idea what he does throughout the day. Just on the basis of money, you make him happy by getting him admitted in schools with grand buildings. Respected, understand child psychology and know the process of making him a better person. Money cannot buy sacraments. Don't be materialistic or else that is what will happen. The old age home is ready for you because you have not given proper introduction to your child towards yourself, towards your family, nor towards your country, as a result the child has settled abroad. Two losses occur simultaneously. You spoiled your old age by making that child anti-social. Second, he left the country in which he became knowledgeable by reading and writing. Think about the consequences of your personal frustrations. If you want to discuss with me in detail about this topic then write me on an mail -

 professor.kbsingh@gmail.com


Friday, April 1, 2022

बौद्ध धर्म और महाघुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन

प्रस्तावना
    जैसा कि सर्वविदित है हमारे इस अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार का मुख्य विषय है- "समसामयिक विश्व में बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता" (Relevance of Buddhism in the Contemporary world ) जिसमें 13 उपविषयों में से एक है 'बौद्ध धर्म और पर्यटन' (Buddhism and Tourism) जिसके मद्देनजर हम अपना शोध पेपर 'बौद्ध धर्म और महाघुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन' नाम से आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहे हैं।
    

 

Dear readers

          This research paper was edited by me in International Peer Review Referred Indexed Interdisciplinary Multilingual Monthly Research Journal –.

The research Paper is published in the March issue of  INTERNATIONAL RESEARCH MIRROR.Journal. You can also Publish Your Researc Papers in this journal,can contect on-  professor.kbsingh@gmail.com   or  Login website  www.ugcjournal.com

To read the published research paper, click on the weblink given below -

http://www.ugcjournal.com/assets/authors/Baudh_Dharma_aur_Mahaaghumakkad_Rahul_Sankrityayan.pdf

 

जो हमारा उप-विषय "बौद्ध धर्म और पर्यटन" को हमने थोड़ा संशोधित करते हुए "बौद्ध धर्म और महाघुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन' रखा है। इसके पीछे वजह यह है कि राहुल जी पर्यटक अर्थात् देशाटक, यायावर और घुमक्कड़ के पर्याय रहे यानि राहुल जी एक विश्व प्रसिद्ध घुमक्कड़ विद्वान रहे हैं। साथ ही साथ राहुल जी आधुनिक भारत के एक महान बौद्ध विद्वान रहे। जिस समय भारत के मुख्य भूमि से बौद्ध धर्म की चर्चा ही समाप्त हो चुकी थी उस समय में राहुल जी के अथक प्रयासों और शोध-कार्यों ने भारत के मुख्य भूमि में बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि राहुल जी का यही महाघुमक्कड़पन आगे चलकर उनको महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन के रूप में परिवर्तित करता है। इस प्रकार निःसन्देह रूप से हम यह कह सकते हैं कि राहुल जी का पर्यटन और बौद्ध धर्म से गहरा नाता रहा है।
राहुल जी के विषय में
    व्यावसायिक अंग्रेजों के लालच के परिणामस्वरूप जब भारत वर्ष की राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक बागडोर पूरी तरह से अंग्रेज अधिकारियों के हाथ में थी उन्हीं दिनों भारत के एक छोटे से गाँव पन्दहा जिला आजमगढ़, उत्तर प्रदेश में 9 अप्रैल, 1893 ई. एक शिशु का अपने ननिहाल में जन्म हुआ था। उस शिशु का नाम उसके नाना ने केदारनाथ पांडे रखा था, क्योंकि केदारनाथ पांडे की माता कुलवंती अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी और अपने माता-पिता के साथ पंदहा ग्राम में रहा करती थीं। उनके पिता गोवर्धन पांडे धार्मिक विचारों के गरीब किसान थे। सो राहुल जी का लालन-पालन उनकी स्नेहमयी नानी ने किया। और यही केदारनाथ पांडे अपने जीवन के कई पड़ावों से गुजरते हुए आगे चलकर महामानव, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के रूप में विश्व विख्यात हुए। अन्ततः दार्जिलिंग में लगभग 70 वर्ष के शानदार जीवन यात्रा के बाद महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी महायात्रा का महाप्रयाण किया।
    राहुल जी की जीवन-दृष्टि बहुआयामी थी। सत्य की खोज के प्रति तीव्र आग्रह, अदम्य साहस और विद्रोह, गहरी संवेदनशीलता, देश-प्रेम, गहन अध्यवसाय, अनुभव की व्यापक्ता, मानव जीवन और लोक की सूक्ष्म पहचान, पुरातत्व, इतिहास, दर्शन और राजनीति के प्रति विशेष अभिरूचि तथा इन सबसे उत्पन्न विश्व दृष्टि ने उन्हें ऐसा रूप दिया जो चिंतक, दार्शनिक, इतिहासकार, प्राध्यापक, साहित्यकार, राजनीतिज्ञ, भाषा-विशेषज्ञ आदि सभी कुछ एक साथ है। इतने बड़े बहुआयामी व्यक्तित्व के पीछे उनकी सजग घुमक्कड़ वृत्ति रही है।
    बल्कि उनके जीवन का प्रेरणा श्रोत है नवाजिन्दा-बाजिन्दा की वह शेर थी जिसे पढ़कर वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस शेर को अपने जीवन का ध्येय ही बना लिया और उस पर पूरे जीवन अमल करते रहे- वह शेर था-
    सैर कर दुनिया के गाफिल, जिन्दगानी फिर कहाँ।
    जिन्दगी गर कुछ रही, तो नौजवानी फिर कहाँ।
    इस शेर ने राहुल जी के जीवन पर इतना अमिट छाप छोड़ा कि वे आजीवन घुमक्कड़ बने रहे और घुमक्कड़ी को उन्होंने दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु करार दिया। इतना ही नहीं आगे चलकर उन्होंने इससे सम्बन्धित घुमक्कड़ शास्त्र, घुमक्कड़ स्वामी, विस्मृत यात्री इत्यादि बड़े महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना भी की।
    राहुल जी ने कई दृष्टिकोण एवं विचारधाराओं को परखा और उसे पूरी श्रद्धा और पूरे मनोयोग से जीया भी परन्तु हमेशा उन्होंने अपने मन को हमेशा खुला रखा किसी भी बेहतर विचारधारा के लिए। इसीलिए उन्होंने अपने जीवन को विचारधारा के दायरे में घुटन का शिकार होने नहीं दिया। जब भी उनको लगा कि विचारधारा उनके जीवन को रोकने लगी है उसी समय उन्होंने उस विचारधारा को त्यागकर नई उन्नत विचारधारा को अपना लिया। ऐसा करने में उनको किसी प्रकार की लालच कभी भी आड़े नहीं आयी। बचपन से मृत्यु तक राहुल जी का यही व्यवहार रहा है। आगे चलकर राहुल जी यही अद्वितीय स्वभाव उन्हें महामानव महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के रूप में प्रतिष्ठित करता है। इस क्रम में राहुल जी ने अपनी यात्रा की शुरूआत वैष्णव साधु से की और आर्य समाज, बौद्ध दर्शन से होते हुए मार्क्सवाद में प्रवेश किया। और ये अलग बात है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें एक समय पार्टी से निष्कासित भी कर दिया। इसके पीछे जो वजह है उसकी चर्चा करने से विषयान्तर होगा इसलिए उसकी चर्चा कभी और कही और होगी।
बौद्ध धर्म के विषय में
    वैसे तो हम सामान्य बोल-चाल और सामान्य समझ के लिए हम बौद्ध धर्म कहते हैं जो कि ठीक है इसमें कही कोई दिक्कत नहीं है। परन्तु धर्म का जो संकीर्ण अर्थ हम लेते हैं। वह प्रायः यह कि यह संप्रदाय या पंथ जैसा कोई चीज है, जो कि ऐसा नहीं है इसका व्यापक अर्थ है। इसी मद्देनजर यदि हम इसे बौद्ध धर्म के बजाय बौद्ध विद्या या बुद्ध देशना कहें तो ज्यादा उचित और समीचीन प्रतीत होता है। क्योंकि धर्म से जो अर्थ हम प्रायः लेते हैं। उसका अभिधान हम प्रायः आडम्बर, रूढ़ियाँ, ढकोसला, कर्मकाण्ड, अंध विश्वास इत्यादि करते हैं। इस सेंस में यह बौद्ध धर्म नहीं इसका व्यापक अर्थ इसे हम जीवन जीने का मार्ग, जीवन जीने की कला, खुश रहने की कला इत्यादि कहते हैं। इस संदर्भ में भगवान बुद्ध स्वयं कहते हैं कि मैं केवल और केवल तुम्हारा शास्ता ही हूँ मुक्तिदाता नहीं अगर तुम्हें मुक्त होना है निर्वाण प्राप्त करना है। तुम्हें मार्ग पर स्वयं चलना पड़ेगा कोई दूसरा तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता। धम्मपद की एक गाथा भगवान बुद्ध स्वयं कहते हैं।
        
        अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया
        अत्तना हि सुदन्तेन, लाथं लभति दुल्लभं।
अत्तवगो, धम्मपद (160)
    अर्थात्- मनुष्य स्वयं ही अपना स्वामी है। भला दूसरा कोई उसका स्वामी कैसे हो सकता है? मनुष्य अपने आप ही अच्छी तरह से अपना दमन करके दुर्लभ स्वामित्व को, निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।
    आगे एक अन्य गाथा में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-
        अत्ता हि अन्तनो नाथो, अत्ता हि अत्तनो गति।
        तस्मा संज्जमत्तानं, अस्सं भद्र व वाणिजो॥
    बुद्ध कहते हैं मनुष्य स्वयं ही अपना स्वामी है। स्वयं ही वह अपनी गति है। इसलिए तुम अपने आप को संयम में रखो, जैसे व्यापारी अपने सधे हुए घोड़े को अपने वश में रखता है।
    इस प्रकार ऐतिहासिक बुद्ध ने अपनी 'वर्षों की कठोर साधना के आधार पर जो विद्या प्राप्त की मुक्ति अर्थात् निर्वाण के लिए जो कि पहले से विद्यमान थी जिसे उन्होंने पुनः खोज लिया था को उन्होंने अपने जीवन के शेष 45 वर्षों तक अहर्निश लोगों में बाँटा और अपने आपको मार्गदर्शक ही बने रहे। इस प्रकार भगवान बुद्ध अपने बुद्धत्व की प्राप्ति से पूर्व 563 B.C. में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोजन के घर सिद्धार्थ के रूप में जन्म लिए और 29 वर्ष की आयु में गृह त्याग के बाद 6 वर्षों तक इधर-उधर ज्ञान के तलाश में घूमते रहे अन्ततः ज्ञान प्राप्ति के बाद भी 45 वर्षों तक घूम-घूम कर ही अपनी शिक्षा लोगों तक पहुँचाया।
    सारनाथ के अपने प्रथम उपदेश में ही अपने पँच वर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देने के बाद कह दिया था कि-
    "चरथ भिक्खवे चारिक, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय।"
    अर्थात्- भिक्खुओं, बहुत जनों के हित के लिए, बहुत जनों के सुख के लिए, लोक पर अनुकम्पा करने के लिए विचरण करो।
    भगवान बुद्ध ने मुख्यतः चार आर्य सत्य जिन्हें पालि में चत्तारि अदिय सच्चानि एवं अंग्रेजी में Four Noble Truth कहा जाता है। जो इस प्रकार है
1.    दु:ख
2.    दुःख समुदय
3.    दुःख निरोध
4.    दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा
    इन्हीं चार आर्य सत्यों को ढंग से समझने के लिए भगवान बुद्ध ने जीवन पर्यन्त भिन्न-भिन्न श्रोता वर्ग के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाने का प्रयास किया उसी के आधार पर बौद्ध साहित्य त्रिपिटक की रचना हुई। आगे चलकर बौद्ध धर्म की अनेक शाखाए और अनेक बौद्ध ग्रन्थों की रचना भी होती है। इसी आधार पर थेरवाद और थेरवादी ग्रन्थ, महायान और महायान बौद्ध ग्रंथ वज्रयान और बज्रयान ग्रंथों की रचना होती है। इसी प्रकार आगे चलकर एक विपुल बौद्ध ग्रन्थों की रचना अस्तित्व में आता है। जिनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय ही है। इस प्रकार भगवान बुद्ध के सभी देशना का उद्देश्य और इन सभी ग्रन्थों का मकसद है कि लोग इन चार आर्य सत्यों को भली-भाँति समझ सके और इन्हें अपने जीवन में उतार सके तथा मुक्त हो सके और निर्वाण प्राप्त कर सके।
पर्यटन के विषय में
    वैसे पर्यटन भी अपने आप में एक बड़ा विषय है परन्तु चूंकि हमने अपने टॉपिक जो चुना है। उसका उपविषय है- Buddhims and Tourism जिसका शब्दिक अर्थ है। बौद्ध धर्म और पर्यटन। इस लिहाज से पर्यटन पर इसी प्रसंग में चर्चा करना जरूरी है। वैसे तो पर्यटन सेवा क्षेत्र का एक किसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी भूमिका अदा करता है। किसी-किसी देश की जी.डी.पी. का एक बड़ा हिस्सा इसी क्षेत्र से आता है।
    परन्तु हम यहाँ पर्यटन को उस तरह से चर्चा नहीं कर रहे हैं जैसे कि पर्यटन के कई प्रकार है जैसे- धार्मिक पर्यटन, चिकित्सा पर्यटन, प्राकृतिक पर्यटन इत्यादि वैसे तो हम अपने शोध पत्र को एक इस दिशा में भी रख सकते थे कि किस प्रकार से बौद्ध धर्म और बौद्ध धर्म से जुड़ी महत्वपूर्ण जगहों का पर्यटन के दृष्टि से क्या महत्व है। परन्तु हमने अपने शोध पत्र को इस दिशा में रखा है कि कैसे पर्यटन या कहें घुमक्कड़ी, यायावरी, देशाटन और बौद्ध धर्म का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध रहा है। इस विषय में हमने पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि कैसे घुमक्कड़ वृत्ति राहुल सांकृत्यायन को बौद्ध धर्म से जोड़ती है और कैसे स्वयं भगवान बुद्ध अपने प्रथम उपदेश के बाद अपने पञ्च वग्गीय भिक्षुओं को चरैवेति- चरैवेति का आदेश देते हैं और स्वयं 45 वर्षों तक लगातार घूम-घूम कर चारिका करते हुए बौद्ध विद्या लोगों को सिखाया।
निष्कर्ष
    इस प्रकार हम देखते हैं कि पर्यटन / देशाटन । घुमक्कड़ी जो कि सोद्देश्यपूर्ण और आँख, कान, नाक खुली रखने हेतु की जाए तो व्यक्ति एक बड़ा विद्वान बन सकता है और समाज के लिए बहुत ही उपयोगी भी।
    परन्तु आज कल पर्यटन को सिर्फ टूर एण्ड ट्रेवेल कम्पनियों द्वारा पैकेज टूर को ही वरीयता देते हैं जिसमें सिर्फ लोगों का केवल मनोरंजन का उद्देश्य ही होता न कि एक खोजी दृष्टि। और साथ ही हम देखते हैं कि बौद्ध धर्म में भी भगवान बुद्ध द्वारा घूम-घूम कर बौद्ध देशना की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सोद्देश्यपूर्ण यात्राएँ व्यक्ति के व्यक्तित्व को बड़ा बनाने में सहायक सिद्ध होती है।
    साथ ही महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड़ी को सर्वश्रेष्ठ धर्म माना है और यह घुमक्कड़ धर्म को अनादि सनातन धर्म स्वीकारा है, यह मानते हुए उन्होंने एक ग्रन्थ लिखा जिसका नाम उन्होंने घुमक्कड़ शास्त्र रखा। 168 पृष्ठ की घुमक्कड़ शास्त्र वर्ष 1948 में किताब महल प्रकाशन, से प्रकाशित है। 'घुमक्कड़ शास्त्र' कोई यात्रा का वर्णन या यात्रा वृत्तान्त नहीं है। 'घुमक्कड़ शास्त्र' यात्रा, देशाटन और देश भ्रमण के महत्व को समझाने वाला सैद्धांतिक ग्रंथ है। इस पुस्तक के विषयवस्तु पर प्रकाश डालते हुए स्वयं राहुल जी ने प्रथम संस्करण की भूमिका में लिखा है, घुमक्कड़ी का अंकुर पैदा करना इस शास्त्र का काम नहीं, बल्कि जन्मजात अंकुर की पुष्टि, परिवर्द्धन तथा मार्ग दर्शन इस ग्रंथ का लक्ष्य है। आगे राहुल जी कहते हैं घुमक्कड़ी तपस्या है, सन्यास है, मोही घुमक्कड़ नहीं हो सकता है। परिवार और देश का मोह छोड़ना होगा। देह-सुख, स्वाद का मोह आदि भी नहीं। नदी, जंगल, समुद्र पार करने का साहस आवश्यक है। इन्द्रियों का संयम आवश्यक है। इंद्रिय लोलुप से घुमक्कड़ी संभव नहीं।
    देश-देश के पानी, पथ्य और परम्परा को पचाने की क्षमता चाहिए। भाषा या संकेत करने की शक्ति आवश्यक है, भाषा और भूगोल का ज्ञान आवश्यक है। घुमक्कड़ी के कारण ही राहुल जी ने अनेक भाषाएँ सीखी।
डॉ. रूद्र प्रताप यादव
पूर्व शोध छात्र
बौद्ध अध्ययन विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ई.मेल-rudrapratapyo@gmail.com
  संदर्भ ग्रंथ सूची
•    सांकृत्यायन राहुल, घुमक्कड़ शास्त्र, किताब महल प्रकाशन, 1949
•    सांकृत्यायन राहुल, घुमक्कड़ स्वामी, किताब महल प्रकाशन, 1956
•     सांकृत्यायन राहुल, विश्व की रूपरेखा, किताब महल प्रकाशन, 1941
•     सांकृत्यायन राहुल, बौद्ध-दर्शन, किताब महल प्रकाशन, 1943
•    सांकृत्यायन राहुल, बुद्धचर्या, किताब महल प्रकाशन, 1930
•    सांकृत्यायन राहुल, महामानव बुद्ध, किताब महल प्रकाशन, 1956
•    सांकृत्यायन राहुल, बौद्ध संस्कृति, किताब महल प्रकाशन, 1949
•    सांकृत्यायन राहुल, एशिया के दुर्गम भूखंडों में, किताब महल प्रकाशन, 1956
•    सांकृत्यायन राहुल, महामानव महापण्डित, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995
•    मुले गुणाकर, स्वयंभू महापंडित, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली-1993
•    वापट पी.वी. बौद्ध धर्म के 2500 वर्ष, प्रकाशन विभाग, दिल्ली, 1956

साहित्य और सिनेमा का संबंध

प्रस्तावना :
    मानव जीवन में कला का एक महत्त्व है। कला और विनोद के समन्वय रुप में प्राचीन काल से नाटक खेले जा रहे है। विज्ञान के अविष्कार होते-होते कला और मनोरंजन का स्वरुप सिनेमा में परिवर्तित हुआ है। इसी को चलचित्र भी कहते है। आजकल के जीवन में सिनेमा एक मुख्य अंग माना जाता है।
सिनेमा का विकास :
    आरम्भ में ‘मैजिक-लैटन’के रुप में चलचित्र होते थे । बाद में ‘मूकचित्र’आये । उसी का विकसित रुप चलचित्र या सिनेमा है। वर्तमान में बडे शहरों में कई सिनेमा घर होते हैं। छोटे शहरों में टूरिंग-टाकीज होते है । आज के समाज में बच्चों से लेकर बूढों तक स्त्री-पुरुष सब सिनेमा देख कर मनोरंजन कर लेते है।
सिनेमा के लाभ :
    सिनेमा में कला और मनोरंजन के साथ शिक्षा मिलती है। ऐतिहासिक चित्र तथा भौगोलिक दृश्य हम देख सकते हैं। धर्म, कला, साहित्य, विज्ञान आदि विषय हमे सिनेमा के द्वारा प्राप्त होते है। विविध प्रदेशों की संस्कृति, वेशभूषा, आचार-विचार आदि विषय सिनेमा के द्वारा हम देख सकते हैं। इनके अलावा वृत्तिचित्रों से हमें विशेषज्ञान की प्राप्ति होती है। आजकल वर्णचित्रों के माध्यम से सिनेमा के प्रदर्शन की सहजता बढ गयी है। सिनेमा प्रसार का भी सुगम साधन है। सरकार अपनी वृत्तियों द्वारा समाज को संदेश भेज सकती है। वाणिज्य प्रचार की सिनेमा के द्वारा हो सकता है।

 

Dear readers

          This research paper was edited by me in International Peer Review Referred Indexed Interdisciplinary Multilingual Monthly Research Journal –.

The research Paper is published in the March issue of  RESEARCH ANALYSIS AND EVALUATION.Journal. You can also Publish Your Researc Papers in this journal,can contect on-  professor.kbsingh@gmail.com   or  Login website  www.ugcjournal.com

To read the published research paper, click on the weblink given below -

 http://www.ugcjournal.com/assets/authors/Sahitya_aur_Cenema_ka_Sambandh.pdf

परिभाषा :
    डॉ. रोजर्स : ‘‘चलचित्र किसी क्रिया को उत्प्रेरित करने हेतु एक उत्तरोत्तर अनुक्रम में प्रक्षेपित छायाचित्रों की एक लंबी श्रृंखला द्वारा विचारों के सम्प्रेषण का एक माध्यम है।‘‘1
    सत्यजीत रे : ‘‘एक फिल्म चित्र है, फिल्म आंदोलन है, फिल्म शब्द है, फिल्म नाटक है, फिल्म एक कहानी है, फिल्म संगीत है, फिल्म हजारों अभिव्यक्ति श्रव्य तथा दृश्य आख्यान है।’’2
    डॉ. कालिदास नाग : ‘‘अपने वास्तविक अर्थो में सिनेमा सिर्फ गतिशील खिलौने का चित्र मात्र नहीं है प्रत्युत् वह जनशिक्षण का बडा ही प्रभावशाली माध्यम है ।‘‘3
    भारतीय सांस्कृतिक सन्दर्भ में सिनेमा शायद सबसे ज्यादा लोकप्रिय और सबसे अधिक शक्तिशाली संचार माध्यम है और हिन्दी फिल्मे सुनिश्‍चित रुप से दूसरी भाषाओं की फिल्मों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय है। चलचित्र मनुष्य की गहन अनुभूतियों एवं संवेदनाओ को जाहिर करनेवाला एक अत्याधुनिक माध्यम है जिसमें लेखन, कल्पना, दृश्य , मंच, निर्देशन, रुप, सज्जा के साथ प्रकाश विज्ञान, इलेक्ट्रानिक्स, कार्बनिक तथा भौतिक रसायन विज्ञान के तकनीकी योगदान है। यह सृजनात्मक एवं यान्त्रिक प्रतिभा का सुंदर संगम है। मानव मन पर गहरा असर डालने की क्षमता की वजह से चलचित्र जन-संचार का सर्वाधिक साधन है।
    ‘‘सिनेमा मे विज्ञान की शक्ति कला का सौंदर्य है जो मस्तिष्क को खाद्य देती है तथा हृदय को आन्दोलित करती है।‘‘4 सिनेमा अभिव्यक्ति का सबसे ज्यादा प्रभावशाली माध्यम है तो किसी घटना, विचार को मनोरम तरीके से प्रस्तुत करता है। सिनेमा तो अतीत का अभिलेख, वर्तमान का चित्तेरा और भविष्य की कल्पना है। व्यक्ति सामाजिक परिवर्तन, लोक-जागरण व बौध्दिक क्रान्ति की दिशा में भारतीय सिनेमा अविस्मरणीय है। यह ऐसा प्रभावशाली साधन है जिसने सभी उम्र के लोगों के मानस को झंकृत कर दिया है। राष्ट्रीय एकता, अछूतोंद्वार, नारी जागरण, अन्याय, शोषण, भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद जैसे राष्ट्रीय कल्याण के प्रश्‍नों पर जन-जन को जागृत करने वाला साधन सिनेमा ही है। फिल्मों के किसी एक सीन या संवाद के चलते दुर्दान्त अपराधी महात्मा बुध्द बन जाता है।
    राष्ट्रभाषा के प्रचार प्रसार में हिंदी फिल्मों की भूमिका हमेशा प्रमुख रही है। हिन्दी के प्रति आस्था, भाव जागरित करने में फिल्म ही सशक्त माध्यम है। दक्षिण में राजनीति फिल्मों पर आधारित है। वैजयन्ती माला, सुनील दत्त, अभिताभ की सफलता के मूल में फिल्म ही है।

    सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनैतिक सभी स्थितियों को आत्मसात करते हुए सिनेमा रचनात्मक बना है। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, रेखाचिच, रिपोर्ताज सभी को सिनेमा ने एक अभिव्यक्ति दी है। अतएव आज हम सिनेमा को ‘मास स्केल’वाली कला कहते है। जिसमें व्यक्ति के लिए शाश्‍वत मनोरंजन, संस्कृति के परस्परित स्वर, उसके जीवन का विश्लेषण, शिक्षा-दीक्षा और साहित्यिक संवेदनाओं की रम्य चित्रानुभूति समाविष्ट है। साहित्य और कला के विविध पक्ष अपने संगठित प्रयत्न से सिनेमा के रुप मे अभिव्यक्ति प्रदान करते है। इस प्रकार कला एवं रचना के रुपो में एक ही धरातल पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास सिनेमा ने किया है।
साहित्य और सिनेमा :
साहित्य और सिनेमा का अटूट संबंध है। सिनेमा और साहित्य का संबंध बहुत पुराना है। साहित्य में मानव कल्याण की कामना होती है। उसमें समाज का प्रतिबिंब होता है। साहित्य परिवर्तनकामी है। सिनेमा कला के अनेक माध्यमों से सबसे प्रभावशाली और सशक्त माध्यम है। साहित्य सिनेमा को आधार प्रदान करता है तथा सिनेमा साहित्य को आम लोगों तक पहुँचाता है।
    सिनेमा अपनी रचना धर्मियता, गीत आदि के लिए सदैव साहित्य पर निर्भर रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि सिनेमा को अपनी सार्थकता के लिए साहित्यकार की कहानियॉं, कवियों की गीतों की आवश्यकता होती है। सिनेमा साहित्य की उपेक्षा नहीं कर सकता क्योंकी साहित्य उसकी रीढ की हड्‌डी अर्थात्‌ मेरुदंड है जिस पर सारा ढांचा,  सारा रचना विधान खडा है। सिनेमा आज के समय की एक प्रभावी कला है। साहित्य की तरह यह भी सभी को साथ लेकर चलती है।
    साहित्य को साज के साथ सिनेमा प्रस्तुत करे और सिनेमा को साहित्य उसके रुप प्रदान करे तो दोनों ही अपने लक्ष तक पहुँचेंगे। साहित्य और सिनेमा साथ मिलकर समाज सुधारक की भूमिका निभाते है। दोनों का उद्देश्य मानव कल्याण है। साहित्यकार संपूर्ण समाज के प्रति दायित्वबोध रखते हुए समाज को विचारमुक्त करने के लिए यथार्थ को प्रस्तुत बनाने में कल्पना का सहारा बडी संजीदगी से लेता है। सिनेमा में दर्शकों को प्रभावित करने की अद्‌भुत क्षमता होती है। यह जन-जन तक पहुँचनेवाला गतिशील माध्यम है। समाज के आचार-विचार तथा व्यवहार को परिवर्तित करने में चलचित्रों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए कहा जाता है की, साहित्य समाज का दर्पण है।
    साहित्य और सिनेमा के रिश्ते पर अनेक तरह के मत सामने आते रहे हैं। लेखक और फिल्मकार गुलजार का कथन है - ‘‘साहित्य और सिनेमा का सम्बन्ध एक अच्छे अथवा बुरे पडोसी, मित्र या सम्बन्धी की तरह एक-दूसरें पर निर्भर है। यह कहना जायज होगा कि दोनों में प्रेम सम्बन्ध है।’’5
    जापानी फिल्मकार अकिरा कुरोसावा के इस कथन से हमे राहत मिलती है- ‘‘सिनेमा में कई कलाओं का मिलन होता है। यदि एक तरफ सिनेमा में अत्यंत साहित्यिक खूबियॉं होती है। तो दूसरी तरफ सिनेमा में रंगमचीय गुण भी होते है।‘‘ 6 उसका एक दर्शनिक पहलू भी होता है। चित्रकला, मूर्तिकला एवं संगीत के तत्व भी  उसमें होते है।
    ‘‘ साहित्य सदियों पुराना अनुभव समृध्द बुजुर्ग है और सिनेमा एक अपरिपक्व तरुणा हालाकि आज यह तरुण सौ साल की उम्र पार कर चुका है, फिर भी इसे कई स्तरों पर वयस्क होना शेष है ।''7
    साहित्य और सिनेमा का मुख्य उद्देश्य आनंद का सृजन करना है। मनोरंजन चरित्रवान होना चाहिए । सिनेमा और साहित्य के बीच संबंध बहुत पहले मूक फिल्मों के युग में शुरु हो गया था। सिनेमा का यह शैशवकाल था जब फीचर फिल्म के रुप में डी. डब्ल्यू ग्रिफिथ ने 1915 में टॉमस डिक्सन के उपन्यास ‘दे कलैसमैन’ पर आधारित अपनी फिल्म ‘द बॅर्थ ऑफ ए नेशन’ बनाई थी। इस फिल्म में एक ऐसे परिवार के उन त्रासद अनुभवों को व्यक्त किया गया था जिसे गृहयुध्द के दौरान उन्हें सहना पडा था । यह उपन्यास उत्कृष्ट कोटि का नहीं था, लेकिन ग्रिफिथ ने इसको अपनी फिल्मकला के जादू से एक अद्वितीय फिल्म में रुपांतरित कर दिया। जिसके फलस्वरुप यह फिल्म सिनेमा के इतिहास में अभी भी महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है।
    तब से आज तक सिनेमा और साहित्य का सम्बन्ध किसी न किसी रुप में बना हुआ है। साहित्यिक कृतियों पर सिनेमा बनाने की सुदीर्घ के दिग्गज फिल्मकार सत्यजित राय ने उनकी कहानी ‘शतरंज के खिलाडी’और ‘सद्गति’ पर फिल्मे बनाई है। प्रख्यात फिल्मकार मृणाल सेन ने तो उनकी कहानी ‘कफन’ को तेलुगू भाषा में परदे पर पेश कर भाषा की दीवारों को भी तोड दिया। मन्नू भंडारी की कहानी पर एक चर्चित फिल्म ‘रजनीगंधा’ बनी जिसको दर्शको से अपार सराहना मिली ।
    सिनेमा और साहित्य के बीच संवाद एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है। लेकिन आज साहित्य और सिनेमा के संबंध में अंतर आया है । इन दोनों के बीच स्वस्थ संवाद को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि वे एक दूसरे की सृजनात्तक संभावनाओं को समझकर उनका सम्मान करे और भिन्न माध्यमों के कारण उनके बीच आने वाले मतमुटावों को कम करके फिल्म की स्वायत्ता बनाए रखने मे सहयोग करे। पटकथा-लेखक में कथा-लेखक को साथ लेने की परिपाटी को फिल्मकार बहुत उत्साह से अपनाकर फिल्म और साहित्य के बीच की दूरी को कम करेंगे। परंतु मेरा तो यह मानना है कि जो साहित्य है, साहित्य ने जो दिया है फिल्म को वह बहुत ज्यादा है।
    साहित्य ने इसको दिशा दी, साहित्य ने ही इसे शुरुआत दी। जो कुछ साहित्य में होता था, पहले वहीं पढे पर्दे पर दिखाया जाता था। इसके बाद कल्पनाएं शुरु हुई। पहले साहित्सिक लोग ही इसके लिए स्क्रिप्ट लिखते थे लेकिन बाद में धीरे-धीरे व्यवसाय बना, जिसमें कुछ लोग ऐसे आए जो राइटर रहे, साहित्य से उनका कोई जुडाव नहीं रहा। कुछ पढे लिखे आए राइटर बने, स्क्रिन प्ले राइटर बने, डायलॉग राइटर बने। धीरे-धीरे रिश्ता जो है साहित्य से फिल्मों का दूर होता चला गया और व्यसवाय इस पर काबिज हो गया। ऐसा नहीं है कि समय बहुत ज्यादा बदला है या बहुत ज्यादा बदलेगा। लेकिन साहित्य का हस्तक्षेप सिनेमा में हमेशा रहेगा और न्याय हो पाता है उसके साथ या नहीं हो पाता है यह सिर्फ उस निर्देशक और समय पर निर्भर करता है। परंतु मेरा अभिप्राय है कि, नि:संदेह हिंदी साहित्य का हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सिनेमा-साहित्य का चिरणी है। 
प्रा. डॉ. ऐनूर शब्बीर शेख
हिंदी विभागाध्यक्षा
कला, विज्ञान व वाणिज्य महाविद्यालय, राहाता 
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------


संदर्भ सूची :
1) इलेक्ट्रॉनिक मिडिया एवं सूचना प्रौद्योगिकी - डॉ. यू. सी. गुप्ता - पृष्ठ 88.
2)  इलेक्ट्रॉनिक मिडिया एवं सूचना प्रौद्योगिकी - डॉ. यू. सी. गुप्ता - पृष्ठ 88.
3) हिन्दी पत्रकारिता - रसा मल्होत्रा - पृष्ठ 207.
4) अनभै - सम्पा. रतनकुमार पाण्डेय - पृष्ठ 53.
5) अनभै - सम्पा. रतनकुमार पाण्डेय - पृष्ठ 52.
6) हिन्दी पत्रकारिता - रसा मल्होत्रा - पृष्ठ 208.
7) अनभै - सम्पा. रतनकुमार पाण्डेय - पृष्ठ 52.

Digital Right Management- Its application In Libraries

 ABSTRACT 

                    Digital right management is an important and inseparable system for protecting the copyrights of data circulated via the internet or other digital media by enabling secure distribution and disabling illegal distribution of the data. It encompasses a variety of technologies and strategies utilized by content owners and managers to limit access to the use of rights-protected content.The present study considers consumer concerns and expectations as well as DRM-based business models. DRM manifests  both technology and user-related issues of DRM and establishes how their functions are essential element of modern librarians’ toolkits to prevent unauthorized redistribution of contents and products and restrict the way users can copy content they have acquired. This paper presents the challenge faced by Users, Content creators and its associates as well as address digital rights management issues in relation to provide users with access to information.Different resources including books, journals, documents, seminar papers, in-house expertise are used in the study.Relevant literature is also consulted through internet browsing.

Keywords:Digital Right Management, Internet, Publisher, Technologies,  Copyright, Content Creator, Retailer, Digital Library.

 

Dear readers

          This research paper was edited by me in International Peer Review Referred Indexed Interdisciplinary Multilingual Monthly Research Journal –.

The research Paper is published in the March issue of  RESEARCH ANALYSIS AND EVALUATION.Journal. You can also Publish Your Researc Papers in this journal,can contect on-  professor.kbsingh@gmail.com   or  Login website  www.ugcjournal.com

To read the published research paper, click on the weblink given below -

 

 http://www.ugcjournal.com/assets/authors/DIGITAL_RIGHT_MANAGEMENT_ITS_APPLICATION_IN_LIBRARIES_.pdf

 Introduction

 

Copying the content, work and ideas of other people is a human tendency and is an age-old practice. With the constant and fast development of information and communication technology, the use of internet became wider as a result of which copied and pirated digital content is being distributed instantaneously. The sale of marketed digital content and products have also become routine resultantly the issues relating to copyright infringement and revenue losses to content owners are increased. On one hand Users argue that DRM is strictly obstructing and limiting the use of content frequently and on the other side the logic of content owners is that they make their works available on selected terms and conditions, make all of their work or part of it available on charging of specific fee or free basis and make use of whatever technological protection is offered by the system. So in this way Digital Right Management prevents stealing and unauthorised use of content of the creators and profiting from their work. However,librarians find themselves dutiful trying to balance between the owners’ and users’ rights. But before the librarian could do this it is necessary for the librarians to understand the concept of DRM and how it works. The creation of DRM, its responses and policies and the issues involved with its use are also necessary to balance the needs and requirements of both users and content owners.

 

Digital Right Management

Digital Rights Management is a technical system enabling content owners for delivering digital content in a controlled way and further preventing users from having access to the data unless they meet the requirements of the right holder, be it financial or otherwise. DRM can, therefore, also be described as encryption applied to an e-book in order to control what users do with it, all in an effort to give authors, publishers, and copyright holders a security that their intellectual property will not be infringed online. Wikipedia describes the tools or technological protection measures through DRM, as a set of access control technologies for restricting the use of proprietary hardware and copyrighted works. This application of technology to facilitate the exploitation of rights is commonly referred to as “digital rights management”.According to Potts, Liza, Dean Holden, and Katie Dobruse (2015),DRM is technology that controls access to content on digital devices.”  Thus Digital rights management (DRM) is the use of technology to control and manage access to copyrighted material

Need Of DRM

The advances in modern technology made, digital piracy, sharing or downloading of creators’ content, much easier and digital piracy has become a routine practice. One can make copies quickly and often for free without being detected. According to the U.S. Chamber of Commerce, the US economy loses billions of dollars a year to online piracy. Despite existence of copyright laws it is far from easy to police the internet.

According to TrulsFretland, Lothar Fritsch, and Arne-KristianGroven(2008), ‘Key goals of DRM are to ensure continuing revenue streams for publishers and authors, to protect books from piracy, to enable tracking of those engaging in illegal copying or downloading, and to limit what users can do with content beyond merely reading it’.DRM is a method of securing digital content to prevent unauthorized use and piracy of digital media. This mechanism prevents users from copying, redistributing, or converting content in a way that is not explicitly authorized by the content provider. DRM tools and software make it almost impossible for anyone to steal protected content. Braid, (2004) expressed three main reasons for the implementation of the DRM:

·         Publishers are not in direct control when supply is through a third party,

·         They fear that inappropriate use might result, and

·         They fear erosion of their subscription base.

Because of the advent and further progress of internet technology it has become very easy to copy any of digital material. Some of the copyright owners are afraid that their copy right works will be misused. This is why the need of digital right management is felt.

Basic Tools & Techniques Used In DRM

DRM has many access control techniques to restrict the unauthorised usage and copy of digital content on various devices, like packaging of content, authentication as well as authorization of the user and controlany other kind of usage of the content.The basic tools and techniques used in DRM are:

Encryption: is  one  of  the  standard  method  to  protect  the  content  available in digital medium from unauthorized use which includes scrambling of the content to make it  unintelligible  to  understand  for  layman,  until  a  key  is  used  to  make  the  content intelligible.

Watermarking: is a method of embedding a copyright stamp into a digital content.  The process is done in a way  that  does  not  change  the  quality  of  the  host  media  and  cannot  be  captured  by human  eyes  or ears.

Hashing Technology :  protects  the digital content from being manipulated by using one-way hash function and to check the authenticity of  content by performing this one-way function  and  comparing the  result  with  message digest provided from the  content provider.

Digital Certificate: is a technology where an identity of a person is bind to a pair of electronic keys that can be used to encrypt and sign digital information.  Digital certificate provide complete security to all the parties in transaction along-with its use with encryption techniques.

Digital Fingerprinting: is also used to detect tempering of electronically transmitted messages.  It cannot be reconstructed from any other digital fingerprint. It is also called ‘Forensic Fingerprinting.

Benefits Of DRM

DRM maintains the right to ownership. DRM takes a proactive approach to protect digital content of authors in retaining ownership of their work by creating barriers to stealing. DRM helps to enforce copyright laws. It protects the rights and interests of the copyright holder by way of piracy protection.

DRM  helps monetize digital content more effectively as it helps protect income streams and prevents illegal sharing thus, protecting fromthe revenue loss.DRM raises awareness and educates users about copyright and intellectual property. DRM directly linked to business growth as it assures companies about the secure sharing of their productand make way for better licensing agreements and technologies. It alsosends a message to consumer when the DRM protected material is used.

Dr. Rajiv Vij

                                                                                                 Deputy Librarian,

Ch. Devi Lal University, Sirsa (Haryana)