Thursday, March 31, 2022

निराला के गद्य साहित्य में राष्ट्रीय चेतना

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    निराला जी ने अपने गद्य-साहित्य में, सैद्भांतिक राजनीति और व्यावहारिक राजनीति - दोंनों से संबधित विचारों को प्रस्तुत किया है उन्होंने भारत को एक राष्ट्र मानकर, अंग्रेजों के इस कूटनीतिज्ञ विचार कि ‘‘भारत अनेक राष्ट्रों का समूह है, यहाँ अनेक जातियाँ अनेक समाज, अनेक भाषाएँ हैं‘‘- का खण्डन किया है। प्राचीन भारत ने, एक सूत्र में बँधकर, सर्वतोंमुखी विकास किया था। इस देश में सभी सुख और दुःख में, एक साथ रहकर, काम करते थे, राम, कृष्ण बुद्भ, रामानुज, कबीर तुलसी आदि महापुरूष वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदाय, प्रादेशिक सीमाओं को लाँघकर, सम्पूर्ण देश में फैले हुए थे। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने इसी विचार को आत्मसात कर स्वजागरण की अलख जगाई। वे लिखते हैं- भारत को, यदि अपना पूर्व, गौरव प्राप्त करना है, अपना अस्तित्व बनाये रखना है, अन्य सभ्यताओं के मुकाबले खड़े होकर, अपना मस्तक ऊँचा रखना है, राजनीति और आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनना है, तो सम्पूर्ण देश को राष्ट्रीयता के पाश में बँधना पडे़गा।


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          This research paper was edited by me in International Peer Review Referred Indexed Interdisciplinary Multilingual Monthly Research Journal –.

The research Paper is published in the March issue of  SHODH SAMIKSHA AUR MULYANKAN.Journal. You can also Publish Your Researc Papers in this journal,can contect on-  professor.kbsingh@gmail.com   or  Login website  www.ugcjournal.com

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http://www.ugcjournal.com/assets/authors/NIRALA_KE_GADHYA_SAHITYA_ME_RASHTRIYE_CHETNA_.pdf

 

मुख्य शब्द - स्वजागरण, ‘बंगभंग- आन्दोलन, लाल-बाल-पाल, असहयोग आंदोलन, लार्ड इरविन, साइमन कमीशन, यतीन्द्रनाथ दास, जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, चोटी की पकड, अप्सरा, भारतीय-एकता, भैया‘।
    भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन की समयावधि सन् 1885 से 1947 है। निराला के जीवन का विकासकाल भी यही (सन् 1889 से 1961) है। अतः चेतनशील साहित्यकार निराला पर, राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव पड़ना तो स्वाभाविक ही था। निराला ने बाल्यकाल में ‘बंगभंग- आन्दोलन‘ (सन्-1905) को अपनी आँखों से देखा था। जिसने ब्रिटिश सत्ता को हिला दिया था और अन्त में उन्हें बंगाल-विभाजन रद््द करना पड़ा था। सन् 1906 से 1920 तक, लाल-बाल-पाल की उग्रवादी राजनीति की तीखे तेवर देख, उन वीर युवकों की कहानियाँ पढ़ी थी, जिन्होंने सशस्त्र क्रांति के द्वारा, भारत को स्वतंत्र कराने  के लिए, अपना प्राणोत्सर्ग किया था। सन् 1920 से 1930 तक, गांधी जी के असहयोग आंदोलन का नया उभार तथा ब्रिटिश सता के दमन चक्र की भीषणताओं का अनुभव किया था। इस सबसे उनका हृदय व्यथित हो गया था।2
निराला की राजनीतिक अन्तदृष्टि एंव दूरदर्शिता गजब की थी। 31 अक्टूबर 1929 को लार्ड इरविन ने अपनी घोषणा में भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य का आश्वासन दिया था। निराला ने घोषणा में निहित, अंग्रेजों की छल-कपट-पूर्ण-नीति का सम्यक, विश्लेषण किया था, जो भविष्य में चलकर अक्षरशः सत्य सिद्भ हुई। निराला ने लिखा था ‘‘बडे़ लाट साहब में ब्रिटिश गवर्नमेंट की तरफ से, भारत के राजनीतिक अधिकारों की कोई घोषणा नहीं है, बल्कि वह एक चाल सी है। वह यह है कि घोषणा के बहाने, अनेक राजनीतिक दलों को मिलाकर, मतभेद करा दिया जाये, बम्बई के जिन्ना और जयकर की घोषणा से यह सन्देह प्रबल हो गया है। हमारे देश में, ऐसे दलवालों की कमी नहीं, जो कृपादृष्टि के भिक्षुक हैं, जरा-सी मुसकिराहट पाने पर ही, कुत्ते की तरह पिघलकर, दुम हिलाने लगते और उसे ही, अपने ही दिल में स्वराज्य सुख समझते हैं। यह अधिकारियों को भी अच्छी तरह मालूम है और इन्हीं विभीषणों की फूट से, वे राजनीतिक विभीषिकाओं की सृष्टि कर डालते है। बड़े लाट की घोषणा में न तो श्रमिक दलों की नीति के परिवर्तन पर कुछ है और न शीघ्र औपनिवेशिक स्वाधिकार-शासन देने की कोई बात। यहाँ साइमन कमीशन को सार्वभौमिक असफलता ही मिली थी। बडे लाट साहब का नेताओं को बुलाकर एकत्र करना, अंग्रेजों की प्राचीन चालबाजी का जौहर दिखाना ही हो सकता है।‘‘3 सन् 1930 में जब कोई भी व्यक्ति-राजनीतिक नेता, राजनीतिक दल, प्रेस मीडिया-खुलकर ंअंग्रेजी शासन का विरोध नहीं कर सकता था, उस समय भी निराला ने, पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजी शासन का तीव्र भाषा में विरोध किया था- ‘‘यदि सरकार, देश के इस बड़े हुए क्षोभ और असंतोष को रोकना चाहती है, तो उसे शीघ्र से शीघ्र अपने निश्चय की घोषणा करनी चाहिए। अहिंसात्मक क्रान्ति के लिए, बिलकुल तैयार देश की युवक शक्ति के बढ़े हुए जोश और उत्साह और जोश की भंयकर बाढ का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। उसे याद रखना चाहिए कि कमजोर बाँध से रोका हुआ वेगवान सिन्धु नदी का उत्ताल प्रवाह, एकदम अदम्य और विनाशकारी हो जाता है। यह फिर छोटे-छोटे बन्धनों की परवाह नहीं करता। सरकार, यदि भारत की आशाओं पर, हरताल पोतने वाला, निश्चय करेगी, तो भारत के नये राष्ट्रपति (काँग्रेस अध्यक्ष) युवक सम्राट जवाहरलाल नेहरू तथा स्वाधानता के दीवाने अन्य युवक के नेतृत्व में  सरकार द्वारा बहायी हुई निशस्त्र भारतीय युवकों के खून की नदियों, जेल की दीवारों और सरकार के अत्याचार के सब जंगली साधनों को पार करके, वह अपने लक्ष्य की ओर बढता ही जावेगा।‘‘4
निराला ने ब्रिटिश शासन के सुधारों का विरोध कर, पूर्ण स्वाधीनता की मांग की थी अंग्रेजों की दमन नीति की बर्बरता का चित्रण कर, जनता को संघर्ष के लिए प्रेरित किया था अंग्रेजों ने अहिंसक क्रांतिकारी पर डण्डे बरसाये, किसानों और मजदूरों का संगठन करने वाले कम्युनिस्ट नेताओं को कठिन कारावास की सजा दी तथा क्रान्तिकारियों को फाँसी दी ब्रिटिश अन्याय के विरूद्भ यतीन्द्रनाथ दास ने अनशन करते हुए जब जेल में प्राण त्याग दिये थे, तब निराला ने लिखा था- ‘‘भारत वर्ष में जितना सहना था, सह लिया। वह समय निकल गया, जब खिलौना पाकर भारत बहल जाता था। देश समझा गया है कि हाथ पर हाथ धरकर बैठने से काम न चलेगा। भारत में एक नई लहर पैदा हो गई है। नवयुवकों ने रणभेरी बजा दी है।‘‘5 निराला के इसी राजनीतिक प्रयास को केन्द्र में रखते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने भी लिखा है ‘‘दमन और सुधारों की दोहरी नीति लागू करने के साथ-साथ अंग्रेज साम्प्रदायिक भेदभाव बढ़ाकर, स्वाधीनता आंदोलन को कमजोर करने का प्रयत्न करते थे। हिन्दुओं और मुसलमानों में भी फूट डाल रहे थे। निराला ने साम्राज्यवाद की इस भेद नीति का विरोध किया। कांग्रेस तथा महात्मा गांधी द्वारा किए जा रहे अछूतोद्भार का समर्थन कर, मानवता के आधार पर निम्न जातियों को संगठित करने के उपाय बतलाए।6 इसके अतिरिक्त निराला जी ने अपने कथा साहित्य को भी अपने राष्ट्रीय जागरण संबंधी विचारों को प्रसारित करने का माध्यम बनाया।
निराला ने ‘चोटी की पकड़‘ उपन्यास में ‘बंगभंग-आंदोलन‘ का चित्रण कर, अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो‘ नीति का पर्दाफाश किया है। ‘चतुरी चमार‘ कहानी में स्वतंत्रता आन्दोलन तथा स्वदेशी आंदोलन का चित्रण किया है। बंग-भंग आंदोलन तथा स्वतंत्रता आंदोलन में राजा और जमींदारों द्वारा, सहयोग देने का कारण, निराला ने, उनके स्वार्थों का निहितार्थ बताया है।7 स्वतंत्रता आंदोलन में मुस्लिम लीग परस्त नेताओं ने अंग्रेजों का साथ दिया था। इसका प्रमुख कारण, अंग्रेजों का हिन्दू और मुसलमानों में फूट डालने की कूटनीति तथा गौण कारण, स्वतंत्र भारत में अल्पसंख्यक मुसलमानों का, बहुसंख्यक हिन्दुओं द्वारा दमन का काल्पनिक भय था। इस तथ्य को ‘चोटी की पकड़‘ उपन्यास में, थानेदार युसुफ छद्मवेश नसीम से कहता है ‘‘आजकल जमींदारों और कुछ हिन्दुओं ने सरकार के खिलाफ गुटबंदी की है, जिस जमींदार से आपके ताल्लुकात हैं। उस पर सरकार को शुभा है। इसका भेद मालूम होना चाहिए। इससे सरकार की मदद भी होगी और कौम की खिदमत भी। सरकार की मदद इस तरह कि आपके जरिये दुश्मन का राज सरकार को मिलेगा और कौम की खिदमत इस तरह कि सुदेशी का बाबेला, जो हिन्दुओं ने मचा रक्खा है, यह जड़ से उखड़ जायेगा। मुसलमान रैयत को फायदे के बदले नुकसान है, अगर हिन्दुओं को कामयाबी हुई। सरकार ने बंगाल के दो हिस्से इस उसूल से किये है कि मुसलमान रैयत को तकलीफ है, मौरूसी बंदोबस्त वाली हर सदी जमीनों पर हिन्दुओं का दखल है, यह आगे चलकर न रहेगा। इससे मुसलमानों की रोटियों का सवाल हल होता है।‘‘8
राजनीतिक संकट के लिए उस समय की सामंती व्यवस्था-राजा, जागीरदार, जमींदार आदि भी दोषी थे। निराला ने राजा, जागीरदारों के अत्याचारों, नृशंसताओं, शोषण-प्रवृतियों तथा विलासताओं को, अपनी आँखों से देखा था। इनके अत्याचारों के लिए भी वे अंग्रेजों को ही दोषी मानते थे। भारत में सामंती व्यवस्था अंग्रेजी शासन के पूर्व भी थी, किन्तु उस समय, धार्मिक अनुशासन के कारण, राजा इतना अत्याचार नहीं करते थे। सन् 1929 में पटियाला राज्य में, प्रजा का बर्बर अत्याचारों का समाचार सुनकर, निराला की विद्रोही भावना भड़क उठी, उन्होंने ‘सुधा‘ पत्रिका में लिखा था- ‘‘सभ्यता, और न्याय का ढांग रचने वाली ब्रिटिश सरकार, यदि अपने हिमायती दुष्ट, व्यभिचारी, देशी नरेशों की विलासिता अत्याचारों को इस प्रकार छिपाने का प्रयास करेगी, यदि वह उनकी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए निरीह और निर्बल प्रजा का इस प्रकार बलिदान करेगी, न्याय का गला, इस प्रकार घोटेगी, तो शीघ्र ही उसे, सभ्य जातियों के सामने मुँह काला करना पडेगा। उसे इन पापों का शीघ्र ही दण्ड मिलेगा।‘‘9 अंग्रेजों के संरक्षण में, देशी राजाओं द्वारा किये गये अत्याचारों एंव क्रूरताओं का वर्णन करते हुए निराला ने लिखा है- ‘‘केवल एक दृष्टि रहती है कि सरकार प्रसन्न रहे। दूसरों की महिलाएँ छीन ली गई, अत्याचार पर अत्याचार हुए, लगान पर लगान बढ़ा, प्रजा से जरा-सी आवाज, कृपा के लिए उठाई, तो गाँव फूँक दिया गया।10महिषादल में रहते समय निराला ने राजा के कर्मचारियों द्वारा लाठी के गूले से गरीब पुजारी, की उगँलियों को कुचलते हुए स्वंय देखा था। इसी घटना को उन्होंने ‘राजा साहब को ठेंगा दिखाया‘ कहानी का कथानक बनया है। भूखा, प्यासा, विशंभर पुजारी, जब राजा साहब को संकेतात्मक भाषा में अपनी व्यथा व्यक्त करता है, तो राजा साहब अपना इसे अपमान समझकर, उसे सिपाहियों द्वारा पिटवाते है, विशंभर घायल हो जाता है। इसी प्रकार ‘हिरनी कहानी में अनाथ बालिका हिरनी को रानी साहिबा नृशंसता के साथ पिटवाती है, नौकर उसका झौंटा पड़कर घसीटते है। निराला ने अपने कथा साहित्य में राजा-महाराजाओं के कदाचारों एंव कुत्सित व्यवहारों का भी वर्णन किया है।
‘अप्सरा‘ उपन्यास में कुँवर प्रतापसिंह गंधर्व कुमारिका ‘कनक‘ के साथ यौन संबंध स्थापित करने के लिए कुत्सित प्रयास करते है। ‘अलका‘ उपन्यास में जमींदार मुरलीधर दुखी शोभा को अपनी काम-वासना का शिकार बनाना चाहते है। ‘चोटी की पकड़‘ उपन्यास में निराला ने राजा तथा जमींदारों के काले कारनामों का यथार्थ चित्रण करते हुए लिखा है ‘‘सारे राज्य में उसके खास आदमियों का जाल फैला रहता है। वह और उसके कर्मचारी दुष्चरित्र होते है, लोभी, निकम्मे, दगाबाज। फैले हुए आदमी प्रजाननों की सुन्दर बहु-बेटियों, विरोधी कार्यवाहियों, संगठनों और पुलिस की मदद से जमींदार के आदमियों पर किये गये अत्याचारों की खबर देने वाले होते है। निर्दोष युवतियों की इज्जत लूटी जाती है, रिश्वत में रुपये लिये जाते है कोई बड़ा मालगुजार है। किसी कारण पटरी न बैठी, लड गया। ताका जाने लगा। शाम उसकी लड़की तालाब के लिए निकली। अँधेरे में पकड़कर, खेत में ले जायी गयी या दूसरे मददगार के खाली कमरे में कैदकर रखी गयी। दूसरे-दूसरे आदमी दाढ़ी लगाकर या मूँछे मुडवाकर चढ़ा दिये गये - ज्यादातर मुसलमानी चेहरे थे। उन्होंने कुकर्म किया। उसके फोटो लिये गये। तीन-चार रोज बाद लड़की घर के पास छोड़ दी गयी। नाम अण्ट-शण्ट लिख दिये गये - चढने वालों के, लडकी के बाप का सही नाम। गाँव और पुलिस की निगाह में दोनों गिर गये। गाँव का आदमी भी पुलिस का, उसके पास दूसरी तस्वीर पुलिस के पास दूसरी। बाप से पूछा जाने लगा। उस पर घड़ों पानी पड़ा। गाँव ने उसके यहाँ खान-पान छोड़ दिया।‘‘11
निराला प्रान्तीयता के विरोधी तथा भारतीय-एकता के समर्थक थे। सन् 1934 में देश में प्रान्तीयता की भावना विशेषतः बंगालियों में-उभरती देखकर, निराला ने तीखी टिप्पणी की थी।- ‘‘संसार में सर्वोच्च आदर्श है, अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव का। उसके बाद राष्ट्रीयभाव का स्थान आता है। पर प्रान्तीयता तो इतनी कलुषित वस्तु है कि उसकी जितनी निंदा की जाय, थोड़ी है। किन्तु दुर्भाग्यवश, भारत में प्रान्तीयता का बडा जोर है, और यदि वह भाव किसी प्रान्त में नहीं है, तो वह उतनी ही हानि उठाता जा रहा है। बंगाल की प्रान्तीयता का पुराना रोना है। मद्रास तथा महाराष्ट्र की प्रान्तीयता भी हम खूब जानते है। पंजाब की प्रान्तीयता भी छिपी नहीं है। बम्बई में, गुजराती समाज में, युक्त प्रान्तवासी ‘भैया‘ का कैसा हेय स्थान है। प्रान्त प्रेम बुरा नहीं है, प्रान्तीय तथा मातृभाषा पर गर्व होना भी स्वाभाविक है, पर प्रान्त के नाम पर, अन्य प्रान्त और फिर देश तथा पहले प्रान्तीय भाषा, फिर देश भाषा या राष्ट्रभाषा को स्थान देना अनुचित तथा निन्दनीय बात है और जो लोग ऐसा दुर्भाव पनपा रहे हैं, वे अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मार रहे है।‘

 डा. अंजू सिहारे
विभागाध्यक्ष (सहायक प्राध्यापक) हिन्दी शासकीय छत्रसाल महाविद्यालय पिछोर जिला शिवपुरी

सारांश
इस प्रकार निराला जी, युग-जीवन के यथार्थ-बोध के आधार पर अपने विचारों को प्रस्तुत करने वाले युगदृष्टा विचारक एंव क्रान्तिकारी साहित्यकार थे। उन्होंने सामंती व्यवस्था, हिन्दू-मुस्लिम एकता, भाषाकार प्रांतो आदि के संबंध में, अपना मौलिक राजनीतिक चिंतन प्रस्तुत किया है। तत्युगीन राजनीतिक प्रभाव का उनका यह चिंतन निष्पक्ष, स्वतंत्र यहाँ तक कि भविष्य दृष्टा बन गया है। क्योंकि उनके कथ्य भविष्य में अक्षरशः सत्य सिद्भ हुये हैं। वर्तमान का बोध तथा भविष्य की सिद्भि उनके चिंतन की मुख्य विशेषता है।
राष्ट्र का प्रश्न /निराला रचनावली/ छठा खण्ड/ पृष्ठ 296
राष्ट्र की युवक शुक्ति / निराला रचनावली / छठा खण्ड/ पृष्ठ 253
घोषण के मध्यान्ह/निराला रचनावली छठा खण्ड/ पृष्ठ 253
‘सुधाः मासिक पत्रिका/ सितम्बर 1929/ सम्पादकीय टिप्पणी/पृष्ठ 1
निराला की साहित्य साधना/ द्वितीय खण्ड/ रामविलास शर्मा/ पृष्ठ 16-17
चोटी की पकड़/ निराला रचनावली/ चौथा खण्ड / पृष्ठ 132-33
चोटी की पकड़/ निराला रचनावली/ चौथा खण्ड / पृष्ठ 141
‘सुधा‘ मासिक पत्रिका/नवम्बर 1929/ सम्पादकीय टिप्पणी/पृष्ठ 6
‘सुधा‘ मासिक पत्रिका/नवम्बर 1932/ सम्पादकीय टिप्पणी/पृष्ठ 2
चोटी की पकड़/निराला रचनावली/चौथा खण्ड/पृष्ठ 151
बंगालियों की प्रांतीयता/निराला रचनावली/छठा खण्ड/पृष्ठ 297





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