Thursday, March 31, 2022

मध्यभारत में जनजातीय स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रति देशज राजाओं का दृष्टिकोण----Attitudes of the Indigenous Kings towards the Tribal Freedom Movement in Central India

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    भौगोलिक दृष्टि से मध्य भारत का विस्तार 17018’ उत्तरी अक्षांश से 26030’ उत्तरी अक्षांश तक तथा 7409’ पूर्वी देशान्तर से 84025’ पूर्वी देशान्तर तक है।1 इस ब्रिटिशकालीन मध्य भारत में सेन्ट्रल इण्डिया एजेन्सी मध्य प्रान्त (सेन्ट्रल प्रोबिन्स) एवं बरार तथा बस्तर के क्षेत्र सम्मिलित थे, जो वर्तमान में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा उत्तरपूर्वी महाराष्ट्र (नागपुर-विदर्भ का क्षेत्र) तक विस्तृत है। उपर्युक्त शोध पत्र में मध्यभारत में हुए जनजातीय स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रति देशज राजाओं के दृष्टिकोंण को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। इसमें प्राथमिक एवं द्वितियक स्त्रोतों की सहायता ली गयी है।
 

Dear readers

          This research paper was edited by me in International Peer Review Referred Indexed Interdisciplinary Multilingual Monthly Research Journal –.

The research Paper is published in the March issue of SHODH SAMIKSHA AUR MULYANKAN.Journal.  You can also Publish Your Research Papers in this journal,can contect on-    professor.kbsingh@gmail.com or login www.ugcjournal.com

To read the published research paper, click on the weblink given below -

http://www.ugcjournal.com/assets/authors/MADHYA_BHARAT_KI_JANJATIYE_SWATANTRATA_ANDOLAN_KE_PRATI_DESHAJ_RAJAON_KA_DRASHTIKON_.pdf

 

 मुख्य शब्द - 

देशज राजा, सामन्त, जमींदार, जागीरदार, सागर-नर्मदा टेरीटरीज, शंकरशाह, रानी अवन्तीवाई, ढिल्लन शाह, राजा महिपाल सिंह गोंड, राजा गंगाधर गोंड, गोंड़ जमींदार बापूराव, गोंड़ जमींदार वेंकटराव,राजा वीरनारायण सिंह, टंटया भील, एम.एच ड्यूरेण्ड, जंगल सत्याग्रह।

    भारतीय इतिहास में पाँचवी - छटवीं शताब्दी से 12 वीं शताब्दी तक समान्तवादी राज्य व्यवस्था का उदभव और विकास माना जाता है। ’सामन्त’ एक व्यापक अर्थ रखने वाला शब्द है। इस श्रेणी में अधीनस्थ राजा, राज्य के अधिकारी, स्वयं को समर्पित करने वाले राजा, दान प्राप्त करने बाले ब्राह्मण तथा राज्य के कुछ सम्बन्धी आते हैं। शक्तिशाली नरेश सामन्तो को कुछ भूमि दे देते थे, भूमि प्राप्त करने वाले भू - दाता नरेश को कर पटाया करते थे। राज्य के अधिकारियां व अधीनस्थों को भूमि देने का कारण सिक्के मुद्राओं की कमी भी था।2 कालान्तर में ये सामन्ती पद पुस्तेनी हो गया और समय के अनुरूप नाम भी परिवर्तित होकर राजा, जमींदार या जागीरदार हो गया। म्ूलतः इन देशज राजाओं का विकास ऐसे सुदूरवर्ती जंगली क्षेत्रो के आस-पास हुआ होगा, जहाँ यातायात की असुविधा के कारण अपना प्रभाव रखना केन्द्रीय शक्ति के लिये असम्भव रहा।

आधुनिक काल में मध्य भारत के अधिकाँश क्षेत्र में राजा, राजा साहब, छोटे सरकार के रूप में विख्यात शासक राजपूत, आदिवासी ही थे। ये पहले स्वतंत्र रूप से तथा बाद में मुगलों मराठों के अधीनस्थ शासक के रूप में शासन करते रहे। ये रामगढ़, गढ़ मण्डला, शाहपुर ,सोनाखाँन, राजनाँदगाँव, छुईखदान, खुज्जी, बस्तर, बैतूल, बालाघाट, बड़वानी पूर्वी एवं पश्चिमी निमाड़, हरदा, होशंगाबाद, जबलपुर, सागर-नर्मदा टेरीटरीज के राज्य इत्यादि हैं। इस व्यवस्था में शक्तिशाली राजा अपने अधीनस्थां शासको से कर लेते थे और ये देशज राजा अपनी स्थानीय प्रजा से कर वसूलते थे। इनमें कई तो उनका शोषण भी करते थे, इन्हें बेगार लेने का अधिकार भी था। कुछ राजा प्रजा के हितों कल्याण के प्रति निरन्तर प्रयासरत रहते थे। लेकिन इनकी संख्या कम ही थी। सन् 1818 ई. के तृतीय आंग्ल मराठा युद्व में मराठों की पराजय के पश्चात मध्य भारत के मराठा अधिपत्य वाले क्षेत्र पर अंगेजो का अधिकार हो गया। इन्होने राजा, और स्थानीय जमींदारो से अलग - अलग इकारनामा किया। ये देशज राजा आंतरिक मामलों में स्वतंत्र थे किन्तु बाह्य मामलों में अंग्रेजो का हस्तक्षेप था।

इनमें अधिकाँश राजा आदिवासी को आदिवासी की दृष्टि से देखते थे, मानवीयता की दृष्टि से नही। इनके प्रति कभी आदर और सम्मान की भावना नहीं थी, उनके मन में। वे कर्तव्य की बात करते थे और अधिकार देने से कतराते थे। राजाओ के इस दोहरे चरित्र के कारण ये जनजातीय जन भाषा, धन और समाजिक -सांस्कृतिक स्थिति में पिछड़ते गए, दीन- हीन हो गये। ये अपने सामाजिक परिवेश के आधार पर अपनी योग्यताओं और गुणो से परिचित नहीं हो पाये, अपितु उन्हे तथाकथित समृद्ध और सुसंस्कृत के उपहास से अपनी वास्तविकता का बोध हुआ। उपहास की यह स्थिति कालान्तर के प्रतिकार में परिवर्तित हो गई। हमने जनजातीय स्वतंतत्रा आन्दोलन के प्रति देशज राजाआें के दृष्टिकांण को भलि भाँति समझने  के लिए इन्हे दो वर्गा में बाँटा है। प्रथम वर्ग में वे देशज राजा जिन्होने स्वयं जनजातीय विद्रोहों एवं आन्दोलनों का नेतृत्व किया, भागीदारी  की अथवा उन्हे संरक्षण दिया। जबकि द्वितीय वर्ग में उन देशज राजाआें को रखा गया है जिन्होंने इन विद्रोहां का स्वयं के स्तर पर तथा अंग्रेजां की मदद से दमन किया।

प्रथम वर्ग में आने  वाले देशज राजाओ की गतिविधि से स्वतः ही स्पष्ट है कि उनका जनजातीय स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रति क्या दृष्टिकांण रहा है। कहने का आशय यह है कि ये राजा एक ओर अपना राज्य, मान-सम्मान छिन जाने से दुःखी थे तो दूसरी ओर अपनी प्रजा के दुःख से दुःखी थे। वे उनके हितो की चिन्ता करते थे। गढ़ मण्डला के गोंड राजा शंकरशाह रामगढ़ की रानी अवन्तीवाई, चावरपाठा का ढिल्लन शाह, भुटगाँव का राजा महिपाल सिंह गोंड, मानगढ़ का राजा गंगाधर गोंड, मोलमपल्ली का गोंड़ जमींदार बापूराव, आरपल्ली का गोंड़ जमींदार वेंकटराव सोनाखान का बिझवार राजा वीरनारायण सिंह इत्यादि द्वारा विद्रोह का नेतृत्व करना इसका प्रमाण है ।

इसी प्रकार इस वर्ग में कुछ ऐसे भी देशज राजा रहे है जिन्होंने इन विद्रोहां एवं आन्दोलनों में अप्रत्यक्ष रूप से भाग लेकर सहयोग प्रदान किया। विरदा के टंटया भील एवं बडवानी में धाबाबावड़ी के भीमानायक के विद्रोही कार्यो व निवास की जानकारी होल्कर राजा एवं बड़वानी के राणा जसवन्त सिंह को होने के बाद भी अंग्रेजो को नही दी, अपितु कई अवसरो पर सूचना भिजवाकर उन्हे वहाँ भागने या आगाह करने में मदद की। भीमा को मुंडन इलाके में 77 तीर रखने का हक एवं आदमी रखने के लिऐ 100 रू. बडवानी दरबार से मिलता था।3 सतपुडा़ क्षेत्र में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिये राज्य की ब्रिटिश पुलिस भीमा से मिल गई थी, इसीलिये  उसे जानबूझकर गिरफ्तार नही करवाया। एक अन्य विवरण के अनुसार दिलशेर खान की सहानभूति होल्कर राजा या कम्पनी सरकार के बजाय क्रातंकारियों के साथ थी। उसने अपने आचरण से धूर्त अंग्रेजो को भ्रम में रखा और क्रान्तिकारियों तक अगं्रजो की गोपनीयता व रणनीति की सूचनाएं पहुँचा दी। इस पर बडी़ तत्परता पूर्वक 500 क्रान्तिकारियों का एक सशक्त दल सुनिश्चित खबर मिलने पर भीकन गाँव में एकत्रित हो गया। यह दल खरगोन के सुरक्षित गोला बारूद को विनष्ट करने के लिए आगे बढा़। बक्सी खुमान सिंह को इसकी जानकारी लगते ही उसने  दिलशेर खान को बापस बुलाया लिया।4 (24 नवम्बर 1858 के कैप्टन शेखर समीर के पत्र के अनुसार)

निमाड़ अंचल के ही मण्डलेश्वर में सीताराम की विद्रोही गतिविधयांं के कारण उसे साथियों सहित पकड़ लिया गया किन्तु होल्कर महाराजा ने सीताराम सहित सभी विद्रोहियों को मुक्त करा दिया। इस पर इन्दौर के रेजीडेन्ट एम.एच ड्यूरेण्ड एवं निमाड़ के अंग्रेज अधिकारी किटिंग ने स्पष्ट आरोप लगाया कि विद्रोहियों को होल्कर महाराज तुकोजीराव द्वितीय ने भड़काया है।5 धाबाबावडी के भीमा ने बडो़द के बहिपटदार को अपने 27 सितम्बर 1858 के पत्र में लिखा था - दंतबाडा़ में लूटपाट करने में अपनी मर्जी से नही गया था, जैसा कि आपको संदेह है। मुझे बडवानी के महाराज जसवंत सिंह, बूधगिर बाबा तथा दौलतपुर मामा ने कहा था कि में बडवानी रियासत का इलाका छोडकर अन्य निकटवर्ती क्षेत्रो  में लूटपात करूँ। मैं राजा को नौकर हुँ, और उनकी आज्ञानुसार मैंने कार्य किया है क्षतिपूर्ण की माँग मुझसे नही अपितु राजा से करें।6

इसी प्रकार बस्तर के मुक्ति संग्राम में माड़िया विद्रोही धुरवाराव ने अंग्रेजो के खिलाफ युद्व में राजा भैरवदेव से भी निवेदन किया कि वह गैर कानूनी सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दें। भैरवदेव तो वैसा नही कर सकें किन्तु विदोहियों को उन्होने पूरी सहायता की। भैरवदेव तो खुलकर सामने नही आ सके किन्तु धुरवाराव के नेतृत्व में उसके ताल्लुक की जनता ने अंग्रेजी सरकार के प्रति विद्रोह कर दिया।7

ऐसी ही अनेक घटनाएँ जनजातीय विद्रोहों के दौरान हमें देखने मिलती है जिनका नेतृत्व उल्लेख पूववर्ती अध्यायों में किया जा चुका है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ये देशज राजा इतने शक्ति सम्पन्न नही थे कि वे अगेंजी सरकार के विरूद्व जा पाते। लेकिन वे भीतर ही भीतर अंग्रेज साम्राज्य के नाश की हृदय में कामना करते थे। यही वजह है कि इन्होंने खुलकर साथ ने देकर अप्रत्यक्ष रूप से विद्रोहियों के हाथ मजबूत किए। इसके अलावा एक ओर महत्वपूर्ण बात यह है कि आदिवासी जन अपने राजा को देवता के समान मानते थे। उसकी आज्ञा उनके लिए सर्वोपरि थी, तभी तो इन्होने कैप्टन जे. टी ब्लण्ट को इन्द्रावती नदी पार नहीं करने दी। उन्होने ब्लण्ट से कहा कि ’जब तक आप लोग भोपालपट्नम से परिपत्र प्राप्त नही कर लेते, आपको नदी पार नही करने दी जायेगी।’ हाँलाकि ब्लण्ट ने कहलवाया कि मराठा शासन से हमें एक पार पत्र प्राप्त है उसे मैं प्रातःकाल आपके राजा के पास निरीक्षण के लिये भेज दूँगा। ब्लण्ट आगे लिखते है कि इस बातचीत के एक घण्टे बाद मुझे पुनः आवाजे सुनाई दी। वे कह रहे थे कि आपको बस्तर में घुसने नही दिया जायेगा। अतः सुबह होते ही हम चुप्पी साधकर वापस लौट आये। ब्लण्ट इन्हें सबसे अधिक खूंखार बताता है।8 इसके विपरीत ऐसा प्रतीत होता है कि ये गोंड़ राजधर्म निभाने तथा घुसपैठ रोकने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थे।

इसी प्रकार की स्वामी भक्ति अथवा राजा के प्रति चिन्ता के भाव की जानकारी 1876 के विद्रोहो के समय भी मिलती है। राजा भैरवदेव 1 मार्च 1876 को प्रिंस ऑफ वेल्स का सिरांचा में सम्मान करने के लिए निकले। लेकिन व्रजपाल में कुलियो ने समान फेंक दिया। इसकी वजह यह थी कि आखिरकार राजा बाहर क्यां जा रहे हैं इनकी अनुपस्थिति में दीवान व मुंशी हम पर अत्याचार करेगें।9 मुरिया जन भलिभाँति समझते थे कि अंग्रेज लोग राजा भैरवदेव को पुनः बस्तर नही लौटने देगें। राजा सदैव के लिये राज्य से बाहर हो जाएगें। हम पर से ईश्वरीय संरक्षण उठ जायेगा।

द्वितीय वर्ग में आने वाले देशज राजा न केवल अंग्रेज सरकार के पिठठू बने रहे बल्कि आदिवासियों के शोषण एवं विद्रोहां के दमन में अंग्रेजो का साथ भी दिया। बस्तर के डोंगर क्षेत्र में हलवाओं ने अपने वास्तविक शासक अजमेर सिंह के समर्थन में 1774 में विद्रोह किया किन्तु दरियावदेव ने पहले स्वयं विद्रोह का दमन करना चाहा किन्तु, असफल होने  पर मराठा और जैपुर स्थित कम्पनी सरकार की मदद से सम्स्त हलवाओं की हत्या कर दी। इतने भीषण नरसंहार का उदाहरण विश्व में अन्यत्र नही मिलता है।10

सन् 1831 में धार राज्य के भीलों के विद्रोह को दबाने के लिए धार के राजा ने आउट्रम की मदद माँगी।11 आउट्रम ने आकर अपना पहले का रास्ता अपनाया और धैर्य के साथ उन्हें अपना मित्र बनाया। इस प्रकार अब राजा और प्रजा के बीच वह अपनी पैठ बनाने में सफल हो गया। इससे आउट्रम को अपनी नीति ’काँटे से काँटा निकालना’ अर्थात भीलो के विरूद्ध भील कोर का गठन करने में सहायता मिली।           

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय नागपुर क्षेत्र से गोंड जमींदार बापूराव व वेंकट राव को पकड़वाने में अहेरी की जमींदारिन ने सहायता की।12 इसी प्रकार जब सोनाखान के वीर नारायण सिंह ने प्रजाहित में किये गये कार्यो के कारण अंग्रेजो का खुलकर विरोध किया। स्मिथ लिखता है कि इसके कारण यहाँ की जनता भी विद्रोही हो गई थी। लेकिन कंटगी, भुटगाँव एवं बिलाईगढ़ के जमींदारो ने विद्रोह के दमन में अंग्रेज अधिकारी स्मिथ की सहायता की। अपने अधिनस्थ जमींदारो व सहायको के साथ स्मिथ घाटी की पूर्णतः नाकेबन्दी करते हुए 29 नवम्बर को सुबह नीमतल्ला से सोनाखान की ओर रवाना हुआ। रास्ते में 30 नवम्बर को देवरी पहुँचा। यहाँ का जमींदार महाराज साय रिश्ते में वीरनारायण सिंह का काका लगता था। देवरी के जमींदार की नारायण सिंह से खानदानी दुश्मनी थी। स्मिथ ने भी अवसर का लाभ उठाते हुए इसे अपने हथियार में बेंट की तरह इस्तेमाल किया। और ऐसी व्यवस्था की कि वीरनारायण सिंह को सोनाखान के बाहर से कोई भी सहायता न मिल सके। यही से स्मिथ ने 1 दिसम्बर 1857 को सोनाखान पर आक्रमण किया। महाराज साय की फौजो ने स्मिथ के सैनिको को रास्ता दिखाया। ऐसा नही है कि वीर नारायण सिंह की कोई तैयारी नही थी उसने सोनाखान से सात मील दूर तोपो सहित अंग्रेजी सेना पर आक्रमण की योजना बनाई थी परन्तु महाराज साय द्वारा धोखा दिये जाने से वह कार्यान्वित नही हो  सकी। नारायण सिंह पराजय स्वीकार कर आत्म समर्पण कर दिया । उसे फाँसी दी गई । महाराज साय को इस गद्दी के बदले पुरूस्कार स्वरूप एक हजार रूपये और सोनाखान की जमींदारी 3 साल के लिए दे दी।13

इसी प्रकार लिगांकगिरि तोलुक के एक विवरण के अनुसार बस्तर में मुक्ति संग्राम में माड़िया नायक धुर्वाराव थे। इनका संघर्ष 3 मार्च 1857 को चिन्तलनार में अंग्रेजो से हुआ। ब्रिटिश अधिकारियों के अनुसार आदिवासियों से कडा़ मुकाबला हुआ, विद्रोह को दबाने के लिए भोपालपट्नम का जमींदार अंग्रेजी सेना के साथ था। धुर्वाराव को पकड़ लिया गया फाँसी दे दी गई। भोपाल पट्टनम के जमींदार का पुत्र यादोराव धुर्वाराव का सच्चा मित्र था उसने अपने पिता एवं अंग्रेज अधिकारियों से इस कृत्य के लिये बदला लेने का निश्चय किया। उसने विद्रोह कर तेंलगा और दोर्ला लोगो की सेना खडी की। लेकिन यहाँ यादोराव के पिता ने अपने पुत्र व जनता का साथ नही दिया। और यादोराव को बन्दी बनाकर ब्रिटिश सरकार के आदेश पर सन 1860 में भोपालपट्टनम में फाँसी दे दी।14 सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में ऐसा निकृष्ट उदाहरण कहीं नहीं मिलता है।

1876 के मुरिया विद्रोह में मुरियाजनों की प्रमुख माँग थी कि दीवान और मुंशी को रियासत से बाहर निकाला जाय। ये हम पर अत्याचार करते हैं, हमारा शोषण करते ंराजा भोरमदेव ने इनकी माँग को अनसुना कर दिया। जिसे आदिवासियों ने समझा कि राजा दीवान और मुंशी के कृत्यो का सर्मथन कर रहे हैं। फलस्वरूप 2 मार्च 1876 को विद्रोह हुआ। विद्रोहियों ने जगदलपुर को घेर लिया। तब राजा ने 4 मार्च 1876 को विशाखापट्नम के स्पेशल एजेन्ट को पत्र लिखकर विद्रोह के दमन के लिये सहायता माँगी।15 मैकजार्ज ने कूटनीतिक तरीका अपनाते हुए विद्रोह का अंत करा दिया। विद्रोह के मूल तत्वां को वह अपने साथ सिरोंचा ले गया। बस्तर के राजा से क्षतिपूर्ण राशि ली। लेकिन यदि राजा भोरमदेव द्वारा मुरिया जन की माँग पहले ही मान ली जाती तो राजा और प्रजा के बीच अंग्रेजो को अपनी धाक जमाने का अवसर नही मिल पाता और न ही बस्तर को क्षतिपूर्ण राशि अंग्रेजो को देनी पडती।

इसी संदर्भ में एक अन्य घटना और उल्लेखनीय है, निमाड़ अंचल की अलीराजपुर रियासत में सोखा के पटेल छीतू किराडा़ ने 1881 में वीर नारायण सिंह का अनुसरण करते हुए गोदामो से अनाज लूटकर भूखे भीलो में बाँटा। अलीराजपुर की रानी ने पहले तो छीतू राय को समपर्ण करने पर जागीर लालच दिया। छीतू के न मानने पर अंग्रेजी फोज बुलाकर उसे पकडवा दिया।16 बिरदा निवासी टण्टया स्थानीय जमींदारो के अत्याचारों के कारण ही विद्रोही बना था। प्रारम्भ में उसका विद्रोह जमीदारां के विरूद्व रहा, लेकिन ये जमींदार अंग्रेजो के पिटठू थे। ये झुठे मुकदमें चलवाकर आदिवासियों का शोषण करते थे। इससे टण्ट्या इन अंग्रेजो के भी विरूद्व हो गया था। इसे पकड़वाने में स्थानीय जमींदारो, सामन्तो, पटेलो ने अंग्रेज अधिकारियो का पूर्ण सहयोग किया।17

इसी तरह बीसवी सदी के तीसरे दशक में हुए जंगल सत्याग्रह के दमन मे भी जमींदारो, पटेलो, एवं राजाओ ने कोई कसर नही छोडी। चूंकि ये सत्याग्रह जमींदारो, मालगुजारो के निर्गम व्यवहार, आदिवासियो से कराई जा रही बेगार प्रथा, मनमाने करारोपण एवं तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के कारण उत्पन्न हुआ था। इसीलिये इन्होने इसके दमन में ही अपनाहित समझा और अंग्रेज पुलिस के निर्दयतापूर्वक दमन करने में सहयोग दिया। नवागाँव, तनावट, नवापारा महासमुन्द कोड़िया मोहवना, बालोद, बेमेतरा, बदरा टोला , उदयपुर, ओरधा छतरपुर इत्यादि ऐसे स्थल है। अब 24 जनवरी 1939 में हुए बदरा रोला के जंगल सत्याग्रह को ही लीजिये यहाँ के जमींदार द्वारा किए जा रहे शोषण के विरूद्व 18 वर्षीय रामधीन गोंड ने जंगल सत्याग्रह किया। इस गाँव रियासत की सशस्त्र पुलिस ने चारो ओर से घेर लिया। पुलिस रामदीन को बन्दी बनाना चाहती थी लेकिन गाँव वाले सम्मिलत रूप से बन्दी बनाये जाने के पक्ष में थे। पुलिस सत्याग्रह के दमन हेतु पहले लाठी चार्ज और फिर गोली चलाने का आदेश दिया। रामधीन गोंड की धटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई।18

अतः स्पष्ट है कि मध्यभारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रति देशज राजाओं का जनजातीय विद्रोहों के प्रति दो प्रकार का दृष्टिकोंण रहा है। एक तो वे राजा जो स्वयं विद्रोह के अगुआ बने अथवा विद्रोह को अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग दिया। दूसरे वे देशज राजा जिन्होने अपने निहित स्वार्थों के चलते न केवल खुद के स्तर पर विद्रोह व आन्दोलनों का दमन किया बल्कि इस कार्य में वह अंग्रेजो के साथ कदम से कदम मिला कर स्वामी भक्ति दिखाते हुए नजर आये। जनजातीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास ऐसे जयचन्दों से भरा हुआ है।

डा.अतुल गुप्ता

विभागाध्यक्ष (सहायक प्राध्यापक)इतिहास, शासकीय महाविद्यालय सेहराई, जिला- अशोकनगर

संदर्भ संकेत :-

ऽ    इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इण्डिया, ऑक्सफोर्ड 1908 पर आधारित

ऽ    डॉ. रामकुमार बेहार अध्यक्ष छत्तीसगढ़ शोध संस्थान रायपुर, का साक्षात्कार दिनांक 29.6.2012

ऽ    श्रीवास्तव, भगवानदास, जंग ए आजादी में महाकौशल, स्वराज संस्थान संचालनालय भोपाल, 2008, पृष्ठ क्र. 204

ऽ    सक्सेना, सुधीर, मध्यप्रदेश में आजादी की लड़ाई और आदिवासी, म. प्र. हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, 2007, पृष्ठ क्र. 121-122

ऽ    चौमासा लेख - डॉ. शिवनारायण यादव, प्रथम स्वाधीनता संग्राम और निमाड़ के आदिवासी, वर्ष-24 अंक 73 मार्च-जून 2007, भोपाल पृष्ठ क्र. 114

ऽ    संधान 5- मध्यांचल में 1857 का विद्रोह और उसमें जनभागीदारी में डॉ. शिवनारायण यादव  के लेख से उद्धत पृष्ठ क्र. 52, डॉ भगवानदास गुप्त स्मृति शोध संस्थान झांसी-2006

ऽ    शुक्ल हीरालाल, बस्तर का मुक्ति संग्राम म. प्र. हि. ग्र. अकादमी भोपाल 2003 पृष्ठ क्र. 213-14

ऽ    ठसनदज श्रण्ज्ए छंततंजपअम तिवउ ं तवनजम तिवउ ब्ीनदंतहीनत जव लमजदंहनकनकए 1795ए ।ेपंजपब त्मेमंतबीमेए टवसण् टप्प्ण् स्वदकवद 1802  चंहम दवण् 133. 136

ऽ    मैकजार्ज एज. जे., रिपोर्ट फारेन डिपार्टमेन्ट फाइल नं. 163-721, पैरा-24

ऽ    शुक्ल हीरालाल, पूर्वोक्त, पृष्ठ क्र. 214

ऽ    सिंह अयोध्या, भारत का मुक्ति संग्राम, प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली 2001,पृष्ठ क्र. 163

ऽ    शुक्ल हीरालाल, पूर्वोक्त, पृष्ठ क्र. 125

ऽ    मिश्र, डॉ रमेन्द्र नाथ, वीर नारायण सिंह, म. प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल, 1998 पृष्ठ क्र. 47- 63

ऽ    छत्तीसगढ़ डिवीजन रिकाड्स, पृष्ठ 27 पृष्ठ. क्र. 286, 1857 दिनांक 10.12.1857

ऽ    कैप्टन सी इस्टाल, एक्टिंग स्पेशल एजेंट का पत्र, फारेन डिपार्टमेंट फाइल नं.

163-172, पृष्ठ क्र. 56

ऽ     सक्सेना सुधीर, ’पूर्वोक्त, पृष्ठ-125

ऽ    शोधार्थी का पंधाना तहसील के बिरदा गाँव में निवासरत टंट्या भील के वंशज से साक्षात्कार दिनांक 25.7.2012

ऽ    दैनिक देशबंधु, रायपुर, 26 जनवरी 1973, पृष्ठ क्र. 16 एवं मध्यप्रदेश संदेश, 15 अगस्त 1987, पूर्वोक्त, पृष्ठ क्र. अ-142

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