Saturday, March 26, 2022

भारत में निजीकरण एवं वर्तमान नीतियां

 प्रस्तावनाः- 

            प्राचीन काल में निजीकरण की नीति यूनान, रोमन सरकार, नाजी हुकूमत, इंग्लैंड. आदि देशों में देखने को मिलती है। यहॉं सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में संचालित किया गया। भारत में यह निजीकरण विनिवेश एवं स्वामित्व के हस्तांतरण के रूप में परिभाषित किया गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास आरंभ हुआ। प्रारंभ में देश के आधारभूत उद्योगों तथा महत्वपूर्ण भारी उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित करने के लिए योजनाएं रखी गई। देश की औद्योगिक नीति एवं व्यापारिक नीति, आंतरिक  आवश्यकता को ध्यान में रखकर के सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का विकास किया गया। साथ ही आर्थिक क्षेत्र के विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाओं में मिश्रित अर्थव्यवस्था के अनुरूप  निजी क्षेत्र के उद्योगों को भी प्रोत्साहन किया गया। 

 This Research paper published in International Peer Reviewed,Refereed,Multilingual,Interdisciplinary,indexed,High impact Factor journal-Shodh samiksha aur mulyankan.March-2022

http://www.ugcjournal.com/assets/authors/Hkkjr_esa_futhdjk_oa_orZeku_uhfrka.pdf.

              अर्थव्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। मुद्रा प्रवाह को अनुकूल बनाया गया। इन नीतियों के परिणाम स्वरूप आधारभूत संरचनात्मक विकास हुआ। इसके साथ-साथ भुगतान संतुलन, व्यापारिक घाटा एवं राजकोषीय घाटे की समस्या उत्पन्न हुई। विदेशों से कर्ज लेना पड़ा। पेट्रोलियम भंडारों के लिए अधिक भुगतान करना पड़ा तथा पर्याप्त विदेशी मुद्रा की कमी होने के कारण विदेशी कर्ज का बोझ बढ़ता गया। सार्वजनिक क्षेत्र में सुस्त प्रबंधन का प्रभाव देखने को मिला, जिससे अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव दिखने लगा। परिणाम स्वरूप आर्थिक दोषों को दूर करने के लिए नई मौद्रिक नीति तथा कोष प्रवाह नीतियो में सुधार किया गया, किंतु स्थिति अधिक अच्छी नहीं रही। 1980 के दशक में इस प्रकार के प्रभाव को दूर करने के लिए विशेष प्रकार के चिंतन किए गए। जिसमें 1991 में उदारवाद, निजीकरण एवं भूमंडलीकरण की नीतियां सामने आई। जिसका प्रभाव भारत की औद्योगिक नीति, मौद्रिक नीति एवं व्यापारिक नीतियों पर पड़ा। निजीकरण के प्रभाव औद्योगिक संस्थानों तथा सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों के ऊपर भी देखने को मिलने लगा।
आशय- निजीकरण सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौपे जाना तथा विनिवेश एवं स्वामित्व के हस्तांतरण की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया है।
शोध के उद्देश्यः- शोध अध्ययन के मुख्य उददेश्य निम्नानुसार हैं।
1 निजीकरण से संबंधित उपलब्ध साहित्य एवं योजनाओं का अध्ययन करना।
2 वर्तमान में संचालित निजीकरण योजनाओं का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव को जानना।
3 निजीकरण का उद्योगो के प्रबंध, प्रशासन एवं संचालन पर प्रभाव का अध्ययन करना।
निजीकरण की आवश्यकताः-अर्थव्यवथा में सुधार करने के लिये कुछ कदम उठाये जाना अवश्यक है। वे इस प्रकार हैंः-
सार्वजनिक उद्यमों की संचालन क्षमता में सुधार ।
उद्योगों में प्रतिस्पर्धा एवं कुशलता का विकास ।
घाटे के बजट में संसाधनों का उपयोग ।
घरेलू उद्योगों का वैश्वीकरण ।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आमंत्रन ।
निर्यात प्रोत्साहन के माध्यम से विदेशी मुद्रा अर्जिन।
प्राकृतिक संसाधनों का उचित विदोहन ।
तेजी से औद्योगिक वातावरण तैयार करना एवं कल्याणकारी गतिविधियों का संचालन।
घाटे के उद्यमों में सुधार करना।
औद्योगिक शांति स्थापित करना।
शोध कार्य का पुनर्रावलोकनः-शोध आवश्यकताओं की पूर्ति एवं विश्वसनीयता हेतु इस क्षेत्र में पूर्व में किये गये शोध अध्ययनों का विवेचन किये जाने की आवश्यकता होती है। अतः इस विषय से संबंधित विषय पर श्रुति मिश्रा द्वारा ,तथा ई. पेर्रोटी द्वाराइससे संबंधित कार्य किये है।
शोध प्रविधिः- शोध विचार को वास्तविक धरातल पर लाने के लिए एक ऐसी प्रक्रिया को अपनाना होता है, जो उसके वास्तविक स्वरूप को लाने के लिए तथ्यात्मक रूप से एवं उसे निकटता प्रदान करने के लिए अपनायी जाती है। शोध प्रक्रिया भी एक ऐसी प्रक्रिया ही है। शोध अध्ययन के अंतर्गत उस शोध विषय की वास्तविकता को जानने के लिए विषय का गहन चिंतन और निर्धारित विकल्पों में से सही विकल्प चयन करना संभव होता है। विषय से संबंधित विभिन्न प्रकार के ऑकडों़ का संग्रहण, सारणियन, श्रेणियन, विश्लेषण, निर्वचन तथा प्रदर्शन किया जाता है।
इस शोध अध्ययन के अंतर्गत हमने वर्तमान परिस्थिति में निजीकरण के संबंध में शासकीय आंकड़ों के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं सोशल मीडिया के माध्यम से प्राप्त जानकारी का उपयोग करते हुए स्थिति के वास्तविक करीब पहुंचने का प्रयास किया है। शासकीय योजनाओं एवं निजीकरण के संबंध में दी गई जानकारी का उपयोग करते हुए सार गर्भिता को पहचाना है तथा इससे उत्पन्न स्थितियों को निष्पक्ष रुप से तथ्यात्मक रूप से प्रदर्शित करने का प्रयास किया हैं।
निजीकरण की वर्तमान स्थितिः- वर्तमान समय में केंद्र सरकार निजीकरण की ओर विशेष प्रकार से जोर दे रही हैं। सरकार ऐसे सार्वजनिक उद्योगों, कम्पनियों एवं सरकारी इकाइयों का निजीकरण करने के लिए प्रतिबद्धता दर्शा रही है तथा विनिवेश एवं स्वामित्व हिस्सेदारी भी निजी हाथों में सौंपना चाहती है। इस संबंध में किये गये प्रयास निम्न हैं-
वर्ष 1991-92 में सरकार ने विनिवेश द्वारा 2510 करोड़ रूपया जुटाने का लक्ष्य रखा था, जिसमें से लक्ष्य से अधिक 3040 करोड़ रुपया जुटाने में सफल रहे।
वर्ष 2013-14 में लगभग 56000 करोड रुपए के विनिवेश का लक्ष्य रखा था पर यह उपलब्धि 26000 करोड़ रुपया की रही थी।
सरकार ने 2017-18 में एक लाख करोड़ का लक्ष्य रखा था। जिसमें 85000 हजार करोड़ रुपया जुटाने में सफल रहे।
वर्ष 2019-20 में सरकार द्वारा अंतरिम बजट के दौरान विनिवेश के जरिए 90 हजार करोड़ रूपया जुटाने का लक्ष्य रखा था, बाद में इसे बढ़ाकर 105000 करोड़ रुपये कर दिया, लेकिन इसी दौरान कोविड-19 आ जाने के कारण लक्ष्य प्राप्त करने की में असफल रही।
वर्ष 21-22 में विनिवेश के लिए 175000 करोड़ रूपये का लक्ष्य रखा गया है।
सरकार भारत पेट्रोलियम कारपोरेशन लिमिटेड, एयर इंडिया शिपिंग कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया, कंटेनर कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया, आईडीबीआई बैंक, बीसीएमएल, पवन हंस, नीलांचल इस्पात निगम आदि को निजी करण के क्षेत्र में पहुंचाने वह सफल रही हैं। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने 1993 में 13 नए घरेलू बैंकों को बैंकिंग करने की ।
दूरसंचार क्षेत्र में 1991 से पहले तक बीएसएनएल का एकाधिकार था, 1999 में नई टेलीकॉम नीति लागू होने के बाद यह भी निजीकरण की ओर आगे बढ़ा।
बीमा क्षेत्र में 1956 में लाइफ इंश्योरेंस एक्ट के बाद 1 सितंबर 1956 को भारतीय जीवन बीमा निगम की स्थापना हुई थी 1999 में मेहरोत्रा समिति की सिफारिश के बाद निजी क्षेत्र को छोड़ दिया गया।
एविएशन क्षेत्र में 1992 में सरकार ने ओपन स्काई नीति बनाई और मोदी लुप्त धमनिया एयरवेज, एयर सहारा जैसी कंपनियां मैदान में आई।
 1991 तक दूरदर्शन ही था 1992 मेरा निजी चौनल ज़ी टीवी शुरू हुआ आज देश में 1000 से ज्यादा चैनल कार्य कर रहे हैं।
सरकार ने निजी करण के संबंध में एक दीर्घकालीन नीति बनाई है इसके तहत सरकारी क्षेत्र से जुड़ी कंपनी, पीएसयू और अन्य संस्थानों को दो हिस्सों में बांटा गया है :-
जिन कंपनियों में एवं पीएचयू का सरकार में 51 प्रतिशत हिस्सा बन चुकी है सरकार की योजनाएं अगले 3 साल में पूर्ण रूप से निजीकरण करने की है ।
सरकार ने कुछ कंपनियां, पीएसयू और संस्थानों को रणनीति क्षेत्र में रखा है, जिसमें परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष, रक्षा, ट्रांसपोर्ट, ऊजा,र् वित्तीय सेवाएं आदि विभाग शामिल है, सरकार इस क्षेत्र को निजी करण और विनिवेश से फिलहाल दूर रखेगी।
सरकारी क्षेत्र की 300 कंपनीया पीएसयू एवं अन्य सरकारी उपकरणों को अधिकतम पूर्ण निजीकरण या इनका ज्यादा से ज्यादा हिस्सा बेचने के लिए तत्पर है सरकार की योजनाएं इन क्षेत्रों से जुड़ी सरकारी कंपनियों की संख्या 3 साल में 300 से 23 करने की है।
निजीकरण की समस्याएॅंः- निजीकरण के आलोचक सार्वजनिक उपक्रमों की संपत्ति को औने पौने दामों में बेची जाने के कारण इस प्रक्रिया की आलोचना कर रहे हैं और कह रहे हैं कि इस प्रक्रिया से सरकार को बहुत बड़ा घाटा उठाना पड़ रहा है। विनिवेश से प्राप्त राशि का उपयोग उपकरणों के विकास के लिए नहीं किया जा रहा है, नाही समाज उपयोगी अधोसंरचना के निर्माण में खर्च किया जा रहा है। यह राशि केवल सरकार के बजट के राजस्व घाटे को कम करने के लिए उपयोग में लाई जा रहे हैं। जिसके कारण निजीकरण से उपलब्ध राशि का सही उपयोग न होने के कारण यह निजीकरण का कार्य भविष्य में नुकसान देगा एवं सार्वजनिक हित के विरुद्ध उपयोग होने के कारण इसके दूरगामी परिणाम देश की अर्थव्यवस्था पर अच्छे नहीं बढ़ने की संभावना जताई जा रही हैं। अन्य समस्याएॅं निम्नानुसार हैं-
अधिक मुनाफा एवं कम जोखिम चाहना,
वस्तु एवं सेवा की लागत में वृद्धि करना,
सामाजिक दायित्व नाममात्र होना,
उत्पाद एवं सेवा में गरीब लोगों को ध्यान में न रखना,
एकाधिकार की समस्या,
भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलना,
जनहित का अभाव एवं कारपोरेट को फायदा पहुंचाना,
कर्मचारियों का शोषण,
अर्ध बेरोजगारी को बढ़ावा,
समस्याओं के निदान हेतु लिए सुझावः- निजीकरण की समस्याओं से निदान पाने के लिये निम्न लिखित सुझाव प्रस्तुत हैंः-
वस्तु एवं सेवा क्षेत्र में गुणवत्ता में सुधार,
उत्पादन एवं सेवा को बढ़ावा,
प्रतियोगिता में अधिक वृद्धि
उत्पादन को बढ़ावा,
भ्रष्टाचार में कमी,
रोजगार की संभावनाओं को बढ़ावा मिलना,
तकनीकी ज्ञान एवं आईटी का उपयोग संभव,
उद्योग में भी निवेश को बढ़ावा देना,
घाटे की अर्थव्यवस्था से मुक्ति मिलना,
सामाजिक सरोकार के कामों में वृद्धि,
सामाजिक उत्तरदायित्व में कमी,
सरकारी राजस्व में वृद्धि होने की संभावना,
व्यवसाय कुशलता में वृद्धि,
सेवा क्षेत्र में गुणवत्ता में सुधार,
प्रबंध एवं संचालन में सुधार
निष्कर्षः- भारत सरकार ने स्वतंत्रता के बाद से ही मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया एवं समाजवादी विचारधारा के अनुरूप देश के उद्योगों की आधारभूत संरचना सरकारी क्षेत्रों में की एवं देश के आधारभूत एवं भारी उद्योगों का विकास किया। साथ ही बहुत सारे क्षेत्रों में निजी पूंजी संसाधनों एवं स्वामित्व के आधार पर विकास किया। बढ़ती हुई देश की अर्थव्यवस्था एवं विदेशों पर निर्भरता का विकास भी हुआ। 1991 में निजीकरण, उदारवाद एवं भूमंडली करण के परिणाम स्वरुप देश के उद्योगों को निजीकरण के क्षेत्र में बढ़ावा देने की बात सामने आई। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया गया। बहुत सारे संसाधनों कंपनियां एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में निजी निवेश को बढ़ावा मिला। जिसके कुछ परिणाम अच्छे देखने को मिले, लेकिन निजीकरण के आधार पर देश की अर्थव्यवस्था का विकास करना उचित नहीं माना जाएगा, क्योंकि बहुत सारे क्षेत्र ऐसे हैं, जहां पर शासकीय हस्तक्षेप एवं नियंत्रण की जरूरत है, निजीकरण के आधार पर जो धन प्राप्त होता है, वह जन कल्याण के लिए उपयोग नहीं होता है। जिसके कारण एक सीमित क्षेत्र में ही निजीकरण को प्रोत्साहित किया जाए, तो देश की अर्थव्यवस्था में स्थायित्व लाते हुए विकास की संभावनाएं बलवती होती हैं।

 डॉ अशोक कुमार राकेशिया
सह-प्राध्यापक वाणिज्य  शहीद भगतसिंह शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय पिपरिया, जिला-नर्मदापुरम म.प्र.
 

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