प्रस्तावना :
मानव जीवन में कला का एक महत्त्व है। कला और विनोद के समन्वय रुप में प्राचीन काल से नाटक खेले जा रहे है। विज्ञान के अविष्कार होते-होते कला और मनोरंजन का स्वरुप सिनेमा में परिवर्तित हुआ है। इसी को चलचित्र भी कहते है। आजकल के जीवन में सिनेमा एक मुख्य अंग माना जाता है।
सिनेमा का विकास :
आरम्भ में ‘मैजिक-लैटन’के रुप में चलचित्र होते थे । बाद में ‘मूकचित्र’आये । उसी का विकसित रुप चलचित्र या सिनेमा है। वर्तमान में बडे शहरों में कई सिनेमा घर होते हैं। छोटे शहरों में टूरिंग-टाकीज होते है । आज के समाज में बच्चों से लेकर बूढों तक स्त्री-पुरुष सब सिनेमा देख कर मनोरंजन कर लेते है।
सिनेमा के लाभ :
सिनेमा में कला और मनोरंजन के साथ शिक्षा मिलती है। ऐतिहासिक चित्र तथा भौगोलिक दृश्य हम देख सकते हैं। धर्म, कला, साहित्य, विज्ञान आदि विषय हमे सिनेमा के द्वारा प्राप्त होते है। विविध प्रदेशों की संस्कृति, वेशभूषा, आचार-विचार आदि विषय सिनेमा के द्वारा हम देख सकते हैं। इनके अलावा वृत्तिचित्रों से हमें विशेषज्ञान की प्राप्ति होती है। आजकल वर्णचित्रों के माध्यम से सिनेमा के प्रदर्शन की सहजता बढ गयी है। सिनेमा प्रसार का भी सुगम साधन है। सरकार अपनी वृत्तियों द्वारा समाज को संदेश भेज सकती है। वाणिज्य प्रचार की सिनेमा के द्वारा हो सकता है।
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परिभाषा :
डॉ. रोजर्स : ‘‘चलचित्र किसी क्रिया को उत्प्रेरित करने हेतु एक उत्तरोत्तर अनुक्रम में प्रक्षेपित छायाचित्रों की एक लंबी श्रृंखला द्वारा विचारों के सम्प्रेषण का एक माध्यम है।‘‘1
सत्यजीत रे : ‘‘एक फिल्म चित्र है, फिल्म आंदोलन है, फिल्म शब्द है, फिल्म नाटक है, फिल्म एक कहानी है, फिल्म संगीत है, फिल्म हजारों अभिव्यक्ति श्रव्य तथा दृश्य आख्यान है।’’2
डॉ. कालिदास नाग : ‘‘अपने वास्तविक अर्थो में सिनेमा सिर्फ गतिशील खिलौने का चित्र मात्र नहीं है प्रत्युत् वह जनशिक्षण का बडा ही प्रभावशाली माध्यम है ।‘‘3
भारतीय सांस्कृतिक सन्दर्भ में सिनेमा शायद सबसे ज्यादा लोकप्रिय और सबसे अधिक शक्तिशाली संचार माध्यम है और हिन्दी फिल्मे सुनिश्चित रुप से दूसरी भाषाओं की फिल्मों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय है। चलचित्र मनुष्य की गहन अनुभूतियों एवं संवेदनाओ को जाहिर करनेवाला एक अत्याधुनिक माध्यम है जिसमें लेखन, कल्पना, दृश्य , मंच, निर्देशन, रुप, सज्जा के साथ प्रकाश विज्ञान, इलेक्ट्रानिक्स, कार्बनिक तथा भौतिक रसायन विज्ञान के तकनीकी योगदान है। यह सृजनात्मक एवं यान्त्रिक प्रतिभा का सुंदर संगम है। मानव मन पर गहरा असर डालने की क्षमता की वजह से चलचित्र जन-संचार का सर्वाधिक साधन है।
‘‘सिनेमा मे विज्ञान की शक्ति कला का सौंदर्य है जो मस्तिष्क को खाद्य देती है तथा हृदय को आन्दोलित करती है।‘‘4 सिनेमा अभिव्यक्ति का सबसे ज्यादा प्रभावशाली माध्यम है तो किसी घटना, विचार को मनोरम तरीके से प्रस्तुत करता है। सिनेमा तो अतीत का अभिलेख, वर्तमान का चित्तेरा और भविष्य की कल्पना है। व्यक्ति सामाजिक परिवर्तन, लोक-जागरण व बौध्दिक क्रान्ति की दिशा में भारतीय सिनेमा अविस्मरणीय है। यह ऐसा प्रभावशाली साधन है जिसने सभी उम्र के लोगों के मानस को झंकृत कर दिया है। राष्ट्रीय एकता, अछूतोंद्वार, नारी जागरण, अन्याय, शोषण, भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद जैसे राष्ट्रीय कल्याण के प्रश्नों पर जन-जन को जागृत करने वाला साधन सिनेमा ही है। फिल्मों के किसी एक सीन या संवाद के चलते दुर्दान्त अपराधी महात्मा बुध्द बन जाता है।
राष्ट्रभाषा के प्रचार प्रसार में हिंदी फिल्मों की भूमिका हमेशा प्रमुख रही है। हिन्दी के प्रति आस्था, भाव जागरित करने में फिल्म ही सशक्त माध्यम है। दक्षिण में राजनीति फिल्मों पर आधारित है। वैजयन्ती माला, सुनील दत्त, अभिताभ की सफलता के मूल में फिल्म ही है।
सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनैतिक सभी स्थितियों को आत्मसात करते हुए सिनेमा रचनात्मक बना है। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, रेखाचिच, रिपोर्ताज सभी को सिनेमा ने एक अभिव्यक्ति दी है। अतएव आज हम सिनेमा को ‘मास स्केल’वाली कला कहते है। जिसमें व्यक्ति के लिए शाश्वत मनोरंजन, संस्कृति के परस्परित स्वर, उसके जीवन का विश्लेषण, शिक्षा-दीक्षा और साहित्यिक संवेदनाओं की रम्य चित्रानुभूति समाविष्ट है। साहित्य और कला के विविध पक्ष अपने संगठित प्रयत्न से सिनेमा के रुप मे अभिव्यक्ति प्रदान करते है। इस प्रकार कला एवं रचना के रुपो में एक ही धरातल पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास सिनेमा ने किया है।
साहित्य और सिनेमा :
साहित्य और सिनेमा का अटूट संबंध है। सिनेमा और साहित्य का संबंध बहुत पुराना है। साहित्य में मानव कल्याण की कामना होती है। उसमें समाज का प्रतिबिंब होता है। साहित्य परिवर्तनकामी है। सिनेमा कला के अनेक माध्यमों से सबसे प्रभावशाली और सशक्त माध्यम है। साहित्य सिनेमा को आधार प्रदान करता है तथा सिनेमा साहित्य को आम लोगों तक पहुँचाता है।
सिनेमा अपनी रचना धर्मियता, गीत आदि के लिए सदैव साहित्य पर निर्भर रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि सिनेमा को अपनी सार्थकता के लिए साहित्यकार की कहानियॉं, कवियों की गीतों की आवश्यकता होती है। सिनेमा साहित्य की उपेक्षा नहीं कर सकता क्योंकी साहित्य उसकी रीढ की हड्डी अर्थात् मेरुदंड है जिस पर सारा ढांचा, सारा रचना विधान खडा है। सिनेमा आज के समय की एक प्रभावी कला है। साहित्य की तरह यह भी सभी को साथ लेकर चलती है।
साहित्य को साज के साथ सिनेमा प्रस्तुत करे और सिनेमा को साहित्य उसके रुप प्रदान करे तो दोनों ही अपने लक्ष तक पहुँचेंगे। साहित्य और सिनेमा साथ मिलकर समाज सुधारक की भूमिका निभाते है। दोनों का उद्देश्य मानव कल्याण है। साहित्यकार संपूर्ण समाज के प्रति दायित्वबोध रखते हुए समाज को विचारमुक्त करने के लिए यथार्थ को प्रस्तुत बनाने में कल्पना का सहारा बडी संजीदगी से लेता है। सिनेमा में दर्शकों को प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता होती है। यह जन-जन तक पहुँचनेवाला गतिशील माध्यम है। समाज के आचार-विचार तथा व्यवहार को परिवर्तित करने में चलचित्रों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए कहा जाता है की, साहित्य समाज का दर्पण है।
साहित्य और सिनेमा के रिश्ते पर अनेक तरह के मत सामने आते रहे हैं। लेखक और फिल्मकार गुलजार का कथन है - ‘‘साहित्य और सिनेमा का सम्बन्ध एक अच्छे अथवा बुरे पडोसी, मित्र या सम्बन्धी की तरह एक-दूसरें पर निर्भर है। यह कहना जायज होगा कि दोनों में प्रेम सम्बन्ध है।’’5
जापानी फिल्मकार अकिरा कुरोसावा के इस कथन से हमे राहत मिलती है- ‘‘सिनेमा में कई कलाओं का मिलन होता है। यदि एक तरफ सिनेमा में अत्यंत साहित्यिक खूबियॉं होती है। तो दूसरी तरफ सिनेमा में रंगमचीय गुण भी होते है।‘‘ 6 उसका एक दर्शनिक पहलू भी होता है। चित्रकला, मूर्तिकला एवं संगीत के तत्व भी उसमें होते है।
‘‘ साहित्य सदियों पुराना अनुभव समृध्द बुजुर्ग है और सिनेमा एक अपरिपक्व तरुणा हालाकि आज यह तरुण सौ साल की उम्र पार कर चुका है, फिर भी इसे कई स्तरों पर वयस्क होना शेष है ।''7
साहित्य और सिनेमा का मुख्य उद्देश्य आनंद का सृजन करना है। मनोरंजन चरित्रवान होना चाहिए । सिनेमा और साहित्य के बीच संबंध बहुत पहले मूक फिल्मों के युग में शुरु हो गया था। सिनेमा का यह शैशवकाल था जब फीचर फिल्म के रुप में डी. डब्ल्यू ग्रिफिथ ने 1915 में टॉमस डिक्सन के उपन्यास ‘दे कलैसमैन’ पर आधारित अपनी फिल्म ‘द बॅर्थ ऑफ ए नेशन’ बनाई थी। इस फिल्म में एक ऐसे परिवार के उन त्रासद अनुभवों को व्यक्त किया गया था जिसे गृहयुध्द के दौरान उन्हें सहना पडा था । यह उपन्यास उत्कृष्ट कोटि का नहीं था, लेकिन ग्रिफिथ ने इसको अपनी फिल्मकला के जादू से एक अद्वितीय फिल्म में रुपांतरित कर दिया। जिसके फलस्वरुप यह फिल्म सिनेमा के इतिहास में अभी भी महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है।
तब से आज तक सिनेमा और साहित्य का सम्बन्ध किसी न किसी रुप में बना हुआ है। साहित्यिक कृतियों पर सिनेमा बनाने की सुदीर्घ के दिग्गज फिल्मकार सत्यजित राय ने उनकी कहानी ‘शतरंज के खिलाडी’और ‘सद्गति’ पर फिल्मे बनाई है। प्रख्यात फिल्मकार मृणाल सेन ने तो उनकी कहानी ‘कफन’ को तेलुगू भाषा में परदे पर पेश कर भाषा की दीवारों को भी तोड दिया। मन्नू भंडारी की कहानी पर एक चर्चित फिल्म ‘रजनीगंधा’ बनी जिसको दर्शको से अपार सराहना मिली ।
सिनेमा और साहित्य के बीच संवाद एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है। लेकिन आज साहित्य और सिनेमा के संबंध में अंतर आया है । इन दोनों के बीच स्वस्थ संवाद को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि वे एक दूसरे की सृजनात्तक संभावनाओं को समझकर उनका सम्मान करे और भिन्न माध्यमों के कारण उनके बीच आने वाले मतमुटावों को कम करके फिल्म की स्वायत्ता बनाए रखने मे सहयोग करे। पटकथा-लेखक में कथा-लेखक को साथ लेने की परिपाटी को फिल्मकार बहुत उत्साह से अपनाकर फिल्म और साहित्य के बीच की दूरी को कम करेंगे। परंतु मेरा तो यह मानना है कि जो साहित्य है, साहित्य ने जो दिया है फिल्म को वह बहुत ज्यादा है।
साहित्य ने इसको दिशा दी, साहित्य ने ही इसे शुरुआत दी। जो कुछ साहित्य में होता था, पहले वहीं पढे पर्दे पर दिखाया जाता था। इसके बाद कल्पनाएं शुरु हुई। पहले साहित्सिक लोग ही इसके लिए स्क्रिप्ट लिखते थे लेकिन बाद में धीरे-धीरे व्यवसाय बना, जिसमें कुछ लोग ऐसे आए जो राइटर रहे, साहित्य से उनका कोई जुडाव नहीं रहा। कुछ पढे लिखे आए राइटर बने, स्क्रिन प्ले राइटर बने, डायलॉग राइटर बने। धीरे-धीरे रिश्ता जो है साहित्य से फिल्मों का दूर होता चला गया और व्यसवाय इस पर काबिज हो गया। ऐसा नहीं है कि समय बहुत ज्यादा बदला है या बहुत ज्यादा बदलेगा। लेकिन साहित्य का हस्तक्षेप सिनेमा में हमेशा रहेगा और न्याय हो पाता है उसके साथ या नहीं हो पाता है यह सिर्फ उस निर्देशक और समय पर निर्भर करता है। परंतु मेरा अभिप्राय है कि, नि:संदेह हिंदी साहित्य का हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सिनेमा-साहित्य का चिरणी है।
प्रा. डॉ. ऐनूर शब्बीर शेख
हिंदी विभागाध्यक्षा
कला, विज्ञान व वाणिज्य महाविद्यालय, राहाता
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संदर्भ सूची :
1) इलेक्ट्रॉनिक मिडिया एवं सूचना प्रौद्योगिकी - डॉ. यू. सी. गुप्ता - पृष्ठ 88.
2) इलेक्ट्रॉनिक मिडिया एवं सूचना प्रौद्योगिकी - डॉ. यू. सी. गुप्ता - पृष्ठ 88.
3) हिन्दी पत्रकारिता - रसा मल्होत्रा - पृष्ठ 207.
4) अनभै - सम्पा. रतनकुमार पाण्डेय - पृष्ठ 53.
5) अनभै - सम्पा. रतनकुमार पाण्डेय - पृष्ठ 52.
6) हिन्दी पत्रकारिता - रसा मल्होत्रा - पृष्ठ 208.
7) अनभै - सम्पा. रतनकुमार पाण्डेय - पृष्ठ 52.