Thursday, April 7, 2022

तृणमूल लोकतंत्रः विकेन्द्रीकृत एवं प्रतिनिधात्मक शासन का आधार


 

संक्षेपिका  भारतीय लोकतंत्र का भविष्य तृणमूल स्तर पर लोकप्रिय जन सहभागिता सुनिश्चित करने पर निर्भर है कि स्वतंत्र निष्पक्ष राष्ट्रीय चुनाव कराने पर। वैश्वीकरण संचार क्रांति ने राज्य नागरिक के संबंध को नये सिरे से परिभाषित किया है। राजनीति लोकतंत्र की विशेषता है। भारतीय राजनीति का विकास की पश्चिमी अवधारणा पर आधारित होने के कारण स्थानीयता का महत्व हासिये पर ही रहा। भारतीय लोकतंत्र अपने स्थापना के साथ ही सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार एवं कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत को अपनाया। वास्तविक विकेन्द्रीकरण राज्य को विकास की ओर अग्रसर करती है। भ्रष्टाचार हिंसा को खत्म किये बिना जनता की शासन में सहभागिता का कोई मतलब नहीं। 1973 में संविधान संशोधन में स्वशासी संस्था को ज्यादा शक्ति प्रदान की है। पारदर्शिता लोकतंत्र के लिये अनिवार्य है।

 

Dear Readers (PLEASE FOLLOW THIS BLOG)

 This research paper was edited by me in International Peer Review Referred Indexed Interdisciplinary Multilingual Monthly Research Journal –.

The research Paper is published in the March issue of  SHODH SAMIKSHA AUR MULYANKAN.Journal. You can also Publish Your Research Papers in this journal,can contect on-  professor.kbsingh@gmail.com   or  Login website  www.ugcjournal.com

To read the published research paper, click on the weblink given below -

http://www.ugcjournal.com/assets/authors/Trinmool_Loktantra_Vikendrikrit_awam_Pratinidhatmak_Shashan_ka_Aadhar.pdf


महत्वपूर्ण शब्द  लोकतंत्र] विकेन्द्रीकरण] सहभागिता] तृणमूल]स्वशासन]प्रतिनिधात्मक।
    
भारतीय राजनीति एवं लोकतंत्र पर प्रचलित लेखन के अन्तर्गत स्थानीय लोकतंत्र ने अनुचित उपेक्षा सहन किया है। भारतीय लोकतंत्र का भविष्य शक्ति तृणमूल स्तर पर, वास्तविक लोकप्रिय जन सहभागिता सुनिश्चित करने पर निर्भर है कि स्वतंत्र निष्पक्ष राष्ट्रीय चुनाव करवाने पर। हालांकि स्थानीय शासन की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितनी की मानव इतिहास लेकिन हाल के वर्षों में यह शैक्षणिक एवं व्यावहारिक साहित्य के विस्तृत चर्चा में शामिल हुई है। वैश्वीकरण संचार क्रांति ने बाध्य किया है कि नागरिक राज्य संबंध एवं सरकार की विभिन्न स्तरों की भूमिका एवं अन्तर्संबंध की पुनरीक्षा की जाये जिस कारण आज स्थानीय शासन के क्षेत्र में निश्चय ही विस्तार हुआ है।
    
शासन के प्रकार के रूप में लोकतंत्र जनता के सशक्तीकरण को चिन्हित करता है जबकि तृणमूल लोकतंत्र वास्तविक सहभागी विकासात्मक प्रकिया को स्थानीय स्तर पर सुनिश्चित करते हुए स्थानीय जनता को सशक्त बनाता है।

दूसरे शब्दों में, तृणमूल लोकतंत्र सही मायनों में विकेन्द्रीकृत लोकतंत्र है, जिसमें जन मामलों के प्रबंधन की शुरूआत अंत शीर्ष से नहीं होता बल्कि स्थानीय क्षेत्र में जनता के सहभागिता के बड़े तंत्र के द्वारा होता है, जो शक्ति, लोकतांत्रिक विचार कार्य का वास्तविक केन्द्र है।
राजनीति लोकतंत्र की विशेषता है। लोकतंत्र में राजनीति जनता के लगाव को बनाये रखती है। सुशीला कौशिक के अनुसार राजनीत वास्तव में शक्ति का अभ्यास है एवं राजनीतिक सहभागिता को इस प्रक्रिया में अर्थपूर्ण मार्गदर्शन करना चाहिए साथ ही राज्य को उन तंत्रों पर प्रभावी नियंत्रण रखना चाहिए जो इन्हें लागू करते हैं। स्टिगलर कहता है कि प्रतिनिधात्मक शासन जनता के जितना ही करीब होगा वह उतना ही अच्छा कार्य करेगा।
ऐतिहासिक रूप से स्थानीय लोकतंत्र राष्ट्रीय राज्य के उदय से पहले अस्तित्व में आया।

भारत में स्थानीय लोकतंत्र का लम्बा इतिहास है, जो मुगल काल में जारी रहा, लेकिन ब्रिटिश राज में इस परम्परा में रूकावट आई। स्वाधीनता संग्राम के दौरान, गाँधी जी अन्य नेताओं ने माना कि आजाद भारत के लिये गाँवों का सशक्तिकरण आवश्यक है।   
नेहरू की केन्द्रीकृत शासन व्यवस्था स्थानीय लोकतंत्र में निहित जनतांत्रिक मूल्यों को देखने में असफल रही। अम्बेडकर का शहरी व्यक्तित्व ग्रामीण परिस्थितियों से प्रभावित हो पाया। दूसरे शब्दों में, भारतीय तृणमूल लोकतांत्रिक संस्थाओं में, जो व्यापक लोकतांत्रिक मूल्य अन्तर्निहित थे, उसे नजर अंदाज किया गया। भारतीय राजनीति का पश्चिमी राजनीतिक विकास के अनुभव पर आधारित होना लोकतांत्रिक स्थानीय सरकार की भूमिका नकारने वर उस पर संदेह करने का मूल कारण है।

 पिछले कई वर्षों से पश्चिमी विकास का यह अनवरत अंधानुकरण एवं स्थानीयता को दबाने की इस प्रक्रिया ने राष्ट्रीय लोकतंत्र, राष्ट्रीय राज्य एवं राष्ट्रीय पहचान के सिद्धांत को उभारने मजबूती प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
भारत ने अपने संविधान में ‘‘एक संप्रभु, समाजवादी, धर्म निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र’’ का चुनाव किया है। लोकतांत्रिक मूल्यों का अर्थ न्याय, समानता, बहुलवाद, विषमता एवं समुदाय एवं वातावरण के बीच समानता है। संपूर्ण संरचना कानून के शासन पर आधारित है। निरंकुश व्यवस्था के मुकाबले लोकतंत्रीय व्यवस्था में व्यावहारिक रूप से मानवाधिकार एवं मौलिक स्वतंत्रताऐं ज्यादा पल्लिवत-पुष्पित होती हैं। आज जबकि विकास, आर्थिक बढोत्तरी, आय, समानता एवं मानव संसाधन, विकास का पर्यायवाची बन चुका है, ऐसे में, विकास के लिए अच्छे शासन शांति की आवश्यकता है। मार्टिन मिनोग के अनुसार अच्छा शासन विस्तृत सुधार योजना के साथ-साथ नागरिक सामाजिक संस्था को मजबूत करने का एक विशेष प्रकार की पहल है। शासन को ज्यादा उत्तरदायी, खुला, पारदर्शी एवं अधिक लोकतंत्रिक बनाना इसका मुख्य उद्देश्य होता है। सबसे महत्वपूर्ण अमर्त्य सेन के विचार हैं कि आर्थिक विकास के साथ-साथ नागरिक एवं राजनीतिक विकास भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन्हीं अधिकारों के बदौलत एक राष्ट्र अपने आर्थिक आवश्यकताओं को पाने की तरफ अग्रसर हो सकता है।
स्थानीय स्वशासन मेंजनता के स्वामित्वकी भावना की कमी एक सार्वभौमिक तथ्य है लेकिन भारत में स्थानीय स्वशासन की स्थिति विचित्र है। हालांकि भारत में स्थानीय स्वशासन की परंपरा काफी पुरानी है लेकिन स्वतंत्रता के पूर्व स्थानीय स्वशासनजनता के स्वामित्वके सिद्धान्त पर आधारित नहीं था लेकिन आजाद भारत में यह सिद्धान्त आधारभूत बन गया। पश्चिम में जब स्थानीय लोकतंत्र का विकास हुआ तो शुरूआत में इसका क्षेत्र काफी संकुचित था धीरे-धीरे संपूर्ण जनता को इसमें शामिल किया गया जबकि भारतीय लोकतंत्र में स्थापना के साथ ही तुरन्त सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार एवं कानून के समक्ष समानता के सिद्धान्त को अपनाया गया। पश्चिम में स्थानीय स्वशासन में विभिन्न तकनीकी एवं जनकल्याण सेवाओं को समयबद्ध तरीके से अपनाया गया जबकि भारत में फौरन अपनाया गया।
हाल के वर्षों में यह खुले दिमाग से स्वीकार किया जा रहा है, कि वास्तविक विकेन्द्रीकरण राज्य को विकास की ओर अग्रसर करती है। यह भी अनुभव किया गया है कि शासन एवं प्रबंध की स्थानीय इकाई का विकेन्द्रीकरण, जनशक्तिकरण, जनसहभागिता एवं कुशलता को बढ़ाने का सर्वोत्तम उपाय है।
पॉल एच. एप्पलबी के अनुसार आज लोकतांत्रिक राष्ट्रों की जनता में यह सामान्य धारणा बन चुकी है कि केन्द्रीकरण बुरा है एवं विकेन्द्रीकरण अच्छा है। मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार जहाँ विकेन्द्रीकरण हुआ है, यह स्थानीय सहभागिता को बढ़ाने स्थानीय अधिकारियों के उत्तरदायित्व को बढ़ाने, कीमत घटाने एवं प्रशासनिक कुशलता बढ़ाने, में अत्यधिक सफल रही है। विकेन्द्रीकरण संसाधनों को जुटाने में मदद करती है, स्थानीय एवं क्षेत्रीय समस्याओं के हल प्रस्तुत करती है एवं गरीबों को विकास की मुख्य धारा में लाकर समता मूलक विकास को बढ़ावा देती है।
विकेन्द्रीकरण वास्तव में निर्णय निर्माण में शक्ति की साझेदारी एवं लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रतिबिम्बित करता है। विकेन्द्रीकरण इस सिद्धान्त पर आधारित होता है कि ज्यादातर निर्णय उन्हीं व्यक्तियों के द्वारा लिये जाते हैं जो इससे प्रभावित होते हैं। शक्ति के विकेन्द्रीकरण का उद्देश्य अच्छा एवं तीव्र संचार, विकास में जनता की सहभागिता एवं प्रतिबद्धता, सहयोग के लिए जागरण एवं राष्ट्रीय विकास के लिए बेहतर तरीके से संसाधनों का उपयोग एवं निर्णय-निर्माण में देर में कमी, संसाधनों के वितरण एवं निवेश में समानता एवं हितग्राहियों के प्रति प्रशासन की उदासीनता में कमी लाता है। विकेन्द्रीकरण प्रमुख प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोकतंत्र सही मायनों में प्रतिनिधात्मक एवं उत्तरदायी बनता है।
लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण राजनीतिक एवं विकासात्मक प्रक्रिया में जनसहभागिता को तय करने के साथ-साथ परराष्ट्रीय एवं मानवीय समस्याओं को सुलझाने का साधन है। भारत में विकेन्द्रीकरण, भारतीय संघ की संरचनात्मक विशेषता है। इसका क्रियान्वयन राज्य की वैधता एवं शासन को मजबूती प्रदान करने में सहायता करती है। रजनी कोठारी के अनुसार भारतीय शासन व्यवस्था में विकेन्द्रीकरण के महत्व को दो तरह से समझा जा सकता है। पहला, संघीय शक्ति के वितरण में, दूसरा भारतीय राजनीति के संघीय चरित्र को मजबूती प्रदान करने में। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण ने परराष्ट्रीय एवं जातीय संघर्षों को महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली ढंग से सुलझाया है। आज भारत का स्वरूप कुछ और होता अगर संघीय विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के अन्तर्गत शक्ति के वितरण के फलस्वरूप राजनीति में जनता की स्थानीय सहभागिता होती। रजनी कोठारी का मानना है कि तृणमूल राजनीति प्रक्रिया विकेन्द्रीकरण का निर्धारक तत्व है। उनके अनुसार, विकेन्द्रीकरण की सफलता की दो शर्तें हैं। एक प्रभावी जनसहभागिता एवं दूसरा नागरिक समाज का दृढ़ संकल्प।
आजादी के बाद राज्य व्यवस्था एक आधुनिक बहु-जातीय राज्य के रूप में विकसित हो रहा था, इस प्रकार के राज्य में लोकतंत्र का व्यवहारिक प्रयोग, सामाजिक जीवन, स्थानीय शासन, व्यापारिक संघ, धार्मिक सभाओं आदि में अत्यधिक होता है एवं सारा सामाजिक तानाबाना समूह पर आधारित होता है। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 40 के अन्तर्गत राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त का समावेश पंचायत को स्थानीय स्वशासन के रूप में स्थापित करने के लिए किया गया जिसके अनुसार, ‘‘राज्य ग्राम पंचायत के गठन के लिए आवश्यक कदम उठायेगा एवं उसे अधिक शक्ति सत्ता के लिए आवश्यक कदम उठायेगा एवं इसे इतनी शक्ति सत्ता प्रदान करेगा जितनी स्वशासन की इकाई को अपने कार्यों को पूरा करने में आवश्यक होती हैं।’’ संविधान में स्थानीय शासन को राज्य सूची के अन्तर्गत रखा गया है ताकि विभिन्न राज्य अपनी स्थानीय आवश्यकतानुसार इस व्यवस्था को लागू कर सके। इन स्थानीय संस्थाओं के माध्यम से वास्तविक शक्ति का विकेन्द्रीकरण, केन्द्र द्वारा शक्ति के दुरूपयोग के भय को कम करेगा, जनसहभागिता बढ़ायेगा, लोकतांत्रिक राजनीतिक क्षेत्र का विस्तार करेगा, प्रशासनिक कुशलता में वृद्धि करेगा एवं अर्न्तशासनात्मक संबंधों में सुधार लायेगा एवं उसे दृढ़ता प्रदान करेगा। भारत में 1950 से पंचायत के रूप में स्थानीय ग्रामीण लोकतंत्र हाल तक शिथिल था। सभी प्रबुद्ध जनों की यह आम राय है कि कुछ राज्यों को छोड़कर ग्रामीण लोकतांत्रिक संस्थाऐं राज्य सरकारों में प्रभावित या यूं कहे प्रचलित थी।
आज के किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में चुनाव की केन्द्रीय भूमिका होती है। लोकतंत्र के प्रतिनिधात्मक चरित्र को दर्शाने के लिए चुनाव की प्रकृति, अवधि एवं सहभागिता की दर का निश्चित आधार होता है। चुनाव लोकतंत्र में एक मंच होता है एक प्रक्रिया होती है, जो राष्ट्र का ध्यान शोषित एवं कमजोर वर्ग के समस्याओं की ओर आकृष्ट करने में सहायता करता है कि निर्णय निर्माण में प्रत्यक्ष सहभागिता नागरिकों के लिए आदर्श होगी। क्योंकि वे अपने ऊपर शासन करेंगे। आज के आधुनिक राज्य में जिसका क्षेत्रफल एवं जनसंख्या विस्तृत होती है, जिसकी समस्याएँ जटिल होती है, सिर्फ प्रतिनिधात्मक लोकतंत्र ही बेहतर शासन व्यवस्था हो सकती है।
अब यह स्पष्ट हो चुका है कि किसी भी देश में दीर्घकालीन आर्थिक सामाजिक विकास हो सके इसके लिए आवश्यक है कि वहाँ की जनता राजनीतिक प्रक्रिया में भाग ले। सहभागिता की प्रक्रिया जटिल है- यह मान लेना संभव नहीं कि जन संख्या का हर तबका सही तरीके से भाग लेगा। भारतीय राज्य के पास इस बात को मानने के बहुत सारे कारण थे कि विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वयन जैसे समग्र ग्राम विकास कार्यक्रम तभी प्रभावी होगा जब स्थानीय जनता इसमें सम्मिलित हो, विशेषकर विभिन्न स्थानीय परियोजनाओं पर निश्चित राशि किस प्रकार वरीयता के आधार पर खर्च किया जाये।  
जनशक्तिकरण, आज भारतीय राजनीति का प्रमुख मुद्दा है। पंचायती राज वह संस्था है जिसके माध्यम से जनशक्तिकरण हो सकता है। स्वतंत्रता के 75 वर्षो के बाद भी भारतीय जनता का राजनीतिक सामाजीकरण स्थानीय लोकतंत्र की ओर उन्मुख नहीं हो पाया है। यह भी सही है कि पिछले 75 वर्षो से बिना किसी उत्तरदायित्व के जनता सरकार से लाभ प्राप्त कर रही है। इतने वर्षो में तृणमूल राजनीति से जनता के दुराव ने सरकार एवं जनता के बीच एक दूरी एक संवाद हीनता का निर्माण कर दिया है। सरकार की मजबूती जनता के अनभिज्ञता पर निर्भर करती है। टालस्टाय का अभिमत है कि सरकार सदैव जन जागरण का विरोध करती है। परिणामस्वरूप अधिकारी भ्रष्ट हो चुके है एवं यह भ्रष्ट व्यवस्था राजनीतिज्ञों द्वारा मान्यता प्राप्त करने के बाद वैधता प्राप्त कर चुकी है।
एक भोजपुरी कहावत यहाँ चरितार्थ होती है किः
                ‘‘
हमहूं लूटीं तूंहों लूटअ
लूटे के आजादी बा
तूं हमरा से ज्यादा लूटअ
कि तहरा देह पर खादी बा’’
चिंता का विषय यह है कि भ्रष्टाचार आज सत्ता के निचले स्तर तक पहुंच चुका है। भ्रष्टाचार एवं हिंसा को खत्म किए बिना जनता की शासन में सहभागिता का कोई मतलब नहीं है। कुछ लोगों का मानना है कि भ्रष्ट निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने की व्यवस्था कारगर कदम हो सकता है।
73
वें संविधान संशोधन ने स्वशासी संस्थाओं को ज्यादा शक्ति प्रदान की है। पंचायती अधिनियम का विश्लेषण करने के बजाय यह आवश्यक है कि इस नये पंचायती व्यवस्था के बारे में जनता को जागरूक बनाये। जनता की जागरूकता पंचायती व्यवस्था को प्रकाशवान बनायेगी। ग्रामीण राजनीति का शुद्धीकरण राष्ट्रीय राजनीति के शुद्धिकरण में मदद करेगा। वर्तमान समय में एक अन्य आयाम, पारदर्शिता के सिद्धान्त में राज्य जनता के बीच तालमेल बिठाने की महत्वपूर्ण क्षमता है। पारदर्शिता लोकतंत्र के लिये अनिवार्यहै।
विकास के अध्येताओं ने यह मान लिया है कि सिर्फ आधुनिकीकरण एवं औद्यौगिंकीकरण विकास ही ला सकती है। लेकिन विकास की इस प्रक्रिया में व्यक्ति की भूमिका एवं उत्तरदायित्व को महत्वपूर्ण तथ्य के रूप में स्थापित करना होगा। जनता का उन्मुखीकरण करना होगा। राजनीतिक नेतृत्व को नई दिशा में प्रशिक्षण देना होगा। पंचायती नेतृत्व को योजना की कला, क्रियान्वयन, देखभाल एवं परियोजना के मूल्यांकन में पारंगत करना होगा। यह सुनिश्चित करना हमारा कर्तव्य है कि पंचायती राज के निर्वाचित सदस्यों को जनता के कल्याण के लिये निर्धारित शक्ति एवं कार्यो का प्रयोग करना है।
ग्रामीण समाज में प्रभावी शक्ति के विकेन्द्रीकरण के लिये कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान देना होगा। सहकारी संस्थाओं का परीक्षण लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के संबंध में होना बाकी है। अशासकीय संगठनों एवं स्वसहायता समूहों की ग्रामीण प्रतिनिधियों के साथ शक्ति की भागीदारी को नये सिरे से परिभाषित करना होगा।
अंत में, स्थानीय लोकतंत्र के बेहतर कार्य के लिये संस्थागत परिवर्तन एक स्वागत योग्य कदम है। लेकिन लम्बे समय तक स्थानीय लोकतंत्र काम करे यह एक अलग कहानी है।मुकेश कुमार  सहायक प्राध्यापक राजनीति शास्त्र शासकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय मुरार ग्वालियर ( प्र